हिंदी साहित्य में हिंदी निबंध अपना एक अलग ही पहचान रखतीं हैं निबंध लेखन भी एक कला है हिंदी निबंध की शुरुआत भारतेंदु युग से माना जाता यह पोस्ट हिंदी निबंध के विकासक्रम से ही सम्बंधित है इस पोस्ट में हम डिटेल में जानेंगे कि हिंदी निबंध का विकास किस प्रकार हुआ।
हिंदी निबंध के विकास क्रम को समझने के लिए विभिन्न काल में बांटा गया है हिंदी निबंध का टेबल ऑफ सीक्वेंस दिया गया है जिनका उपयोग कर आप सीधे उस काल में जा सकते हैं आप जिस भी निबंध काल के बारे में जानना चाहते हैं।
हिंदी निबंध का विकास क्रम |
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हिंदी निबन्ध का विकासक्रम
निबन्ध उस गद्य रचना को कहते है, जिसमें लेखक किसी विषय पर अपने विचारों को स्वच्छंद रूप में इस प्रकार व्यक्त करता है कि सारी रचना एक सूत्र मे बंधी हुई प्रतीत होती है।
हिन्दी की अन्य गद्य विधाओं के समान हिन्दी निबन्ध का विकास भी भारतेन्दु युग से प्रारम्भ हुआ। इस काल में भारतीय समाज में एक नई चेतना का विकास हो रहा था। पढ़े-लिखे लोग अपने विचारों को स्वच्छन्दतापूर्वक एक निजीपन लिए हुए ढंग से स्वतन्त्र रूप से व्यक्त करने लगे थे। इस समय तक हिन्दी की अनेक पत्र-पत्रिकाए प्रकाशित होने लगी थीं जिनमें हरिश्चन्द्र चन्द्रिका, उदंत मार्तण्ड, ब्राह्मण, प्रदीप, बनारस अखबार सार-सुधानिधि आदि महत्वपूर्ण थीं। इन समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में विविध विषयों पर जो विचार व्यक्त किए जाते थे, उन्हें ही हिन्दी निबन्ध का प्रारम्भिक रूप कहा जा सकता है। लेखकों के समक्ष अनेक विषय थे। वे सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक विषयों पर प्राय: निबन्धों के माध्यम से प्रकाश डालते रहते थे। स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि हिन्दी के प्रारम्भिक निबन्ध पत्रकारिता से सीधे जुड़े हुए थे।
भारतेन्दु युग के निबन्धकारों ने साधारण से साधारण और गम्भीर से गम्भीर विषयों पर निबन्धों की रचना की। सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों पर स्वच्छन्द रूप से विचार व्यक्त करते हुए इन्होंने हिन्दी निबन्ध को विकास पथ पर अग्रसर किया। संक्षेप में हिन्दी निबन्ध के विकास को चार कालों में विभक्त किया जा सकता है- 1. भारतेन्दु युग, 2. द्विवेदी युग 3. शुक्ल युग, 4. शुक्लोत्तर युग।
Hindi Nibandh Vikas kram |
1. भारतेन्दु युग (सन् 1873 ई. से 1903 ई. तक)
भारतेन्दु युग को हिन्दी निबन्ध की विकास यात्रा का प्रारम्भिक चरण माना जा सकता है। भारतेन्दुजी के निबन्ध ही हिन्दी के प्राथमिक निबन्ध है, जिनमें निबन्ध कला की मूलभूत विशेषताएँ उपलब्ध होती है। भारतेन्दु जी ने हिन्दी गद्य की अनेक विधाओ का न केवल सूत्रपात किया, अपितु उन्हें पल्लवित करने का श्रेय भी उन्हें ही प्राप्त है। भारतेन्दु जी के निबन्ध विषय एवं शैली की दृष्टि से विविधतापूर्ण है। उन्होंने इतिहास, समाज, धर्म, राजनीति, यात्रा, प्रकृति वर्णन एवं व्यग्य-विनोद जैसे विषयों पर निबन्धों की रचना की। अपने सामाजिक निबन्धो में उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किए तो राजनीतिक निबन्धों में अंग्रेजी राज्य पर तीखे व्यंग्य किए। भारतेन्दु जी के निबन्धों में विषयानुकूल भाषा-शैली का प्रयोग हुआ है। उनके आलोचनात्मक निबन्धों की भाषा प्रौढ़ होते हुए भी दुरूह एवं बोझिल नहीं हो पाई है। भारतेन्दु जी के कुछ निबन्धों के नाम यहा देना अप्रासंगिक न होगा अंग्रेज स्तोत्र, पांचवे पैगम्बर, स्वर्ग में विचार सभा का अधिवेशन लेवी प्राण लेवी आदि।
भारतेन्दु युग के प्रमुख निबन्धकारो में स्वयं भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के अतिरिक्त बालकृष्ण भट्ट, बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमघन' प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त, राधाचरण गोस्वामी, अम्बिकादत्त व्यास आदि उल्लेखनीय है। इन निबन्धकारों ने भी हिन्दी निबन्ध के विकास में पर्याप्त योगदान किया है। पं. बालकृष्ण भट्ट 'हिन्दी प्रदीप' के यशस्वी सम्पादक थे और वर्णनात्मक, भावात्मक, विचारोत्तेजक निबन्धों के लेखक के रूप में जाने जाते थे हास्य को वे बहुत महत्व देते थे। उनके निबन्ध भावात्मक भी है और विचारात्मक भी गम्भीर बातों को सरल और सुबोध ढंग से प्रस्तुत कर पाने की कला में वे निष्णात थे। विषय की व्यापकता एवं मौलिकता के साथ-साथ शैली की रोचकता उनके निबन्धों की प्रमुख विशेषता मानी जा सकती है।
'ब्राह्मण' के सम्पादक पण्डित प्रतापनारायण मिश्र इस युग के प्रतिनिधि निबन्धकार थे। वे मनोरंजक एवं व्यंग्य प्रधान निबन्धों को लिखने में अति कुशल थे। भौ, पेट, दात, नाक आदि पर उन्होंने विनोदपूर्ण शैली में निबन्ध लिखे हैं। कैसा भी विषय क्यों न हो वे उसमें विनोद की सामग्री खोज ही लेते हैं। मिश्र जी की भाषा मुहावरेदार है जिसमे कहीं-कही व्यर्थ की उछलकूद एवं चंचलता भी देखी जा सकती है।
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बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' 'आनन्द कादम्बिनी' नामक मासिक पत्रिका के सम्पादक थे उनके निबन्धों की भाषा में आलकारिकता कृत्रिमता एवं चमत्कारप्रियता सर्वत्र दिखाई देती है।
बालमुकुन्द गुप्त ने 'शिवशम्भू का चिट्ठा' नाम से लार्ड कर्जन को सम्बोधित करते हुए जो निबन्ध लिखे है उनमें भारतवासियों की राजनीतिक विवशता का कच्चा चिट्ठा पेश किया गया है।
राधाचरण गोस्वामी ने अनेक निबन्ध सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करने के उद्देश्य से लिखे।
संक्षेप में भारतेन्दु युग के निबन्धकारों में विषय की व्यापकता एवं विविधता है। वे निबन्ध लेखक होने के साथ-साथ पत्रकार भी है अतः उनमें वैयक्तिकता के साथ-साथ सामाजिकता का भी समावेश है। इनकी शैली में हास्य-व्यंग्य एवं मनोरंजन की प्रधानता है।
2. द्विवेदी युग (सन् 1903 ई. से 1920 ई. तक)
हिन्दी निबन्ध के विकास के द्वितीय चरण को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर द्विवेदी युग कहा गया है। द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' पत्रिका का सम्पादकत्व सन् 1903 ई. में सम्भाला था, अत: द्विवेदी युग का प्रारम्भ हम इसी समय से मान सकते हैं। द्विवेदी जी ने सरस्वती के माध्यम से भाषा संस्कार एव व्याकरण शुद्धि के जो प्रयास प्रारम्भ किए उनका प्रभाव तत्कालीन सभी निबन्धकारों पर किसी न किसी रूप में अवश्य पड़ा।
आचार्य द्विवेदी ने 'बेकन के निबन्धों को आदर्श निबन्ध मानते हुए उनके निबन्धों का हिन्दी अनुवाद 'बेकन विचार रत्नावली' के नाम से किया। इसके अतिरिक्त उनके अपने निबन्धों का संग्रह 'रसज्ञ रंजन' नाम से प्रकाशित हुआ है। द्विवेदी जी के कुछ प्रसिद्ध निबन्धों के नाम हैं - कवि और कविता, कवि कर्तव्य प्रतिभा, साहित्य की महत्ता, लोभ, मेघदूत आदि उनके निबन्धों मे वैचारिकता एवं गम्भीरता है तथा भारतेन्दु युग की हास्य-व्यंग्य शैली का यहां अभाव है। इन निबन्धो की भाषा शुद्ध सार्थक एवं परिमार्जित है। ये निबन्ध प्राय: व्यास शैली में लिखे गए हैं, जिससे वे बोधगम्यता के गुण से युक्त हो गए है।
भारतेन्दु युग की निबन्ध परम्परा से एक स्पष्ट अलगाव द्विवेदीयुगीन निबन्धों में परिलक्षित होता है। भारतेन्दु युग के निबन्धों में जहां वैयक्तिकता की प्रधानता थी, वहीं द्विवेदी युग के निबन्धों में परम्परा का हास दिखाई पड़ता है। द्विवेदी युग के निबन्धकारो मे पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी के अतिरिक्त अन्य प्रमुख निबन्ध लेखक थे - माधव प्रसाद मिश्र, गोविन्द नारायण मिश्र, बाबू श्याम सुन्दर दारा, अध्यापक पूर्ण सिंह, पदम सिंह शर्मा, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, मिश्र बन्धु, जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी आदि ।
द्विवेदी युग के सर्वाधिक सशक्त निबन्धकार हैं - सरदार पूर्णसिंह जो हिन्दी में भावात्मक निबन्धों की रचना के लिए तथा शैली की विशिष्टता एवं भाषा की लक्षणिकता के लिए सुविख्यात रहे हैं। उनके निबन्ध हिन्दी की अमूल्य निधि है। इनके निबन्धों के नाम है - आचरण की सभ्यता, मजदूरी और प्रेम. सच्ची वीरता, पवित्रता, कन्यादान और अमेरिका का मस्त योगी वाल्ट हिटमैन। इन निबन्धों में स्वाधीन चिन्तन के साथ-साथ लाक्षणिक एवं व्यग्य प्रधान शैली की छाप दिखाई पड़ती है। पूर्णसिंह जी की लाक्षणिक पदावली के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है - "आजकल भारतवर्ष में परोपकार का बुखार फैल रहा है।" "वह वीर ही क्या जो टीन के बर्तन की तरह झट गरम और झट ठण्डा हो जाता है।"
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि द्विवेदी युग में विचार प्रधान निबन्धों की रचना अधिक हुई है। भारतेन्दु युग की अपेक्षा इस युग के निबन्धकारों की भाषा-शैली में प्रौढ़ता दिखाई पड़ती है। इन निबन्धकारों ने युगीन समस्याओं की अपेक्षा साहित्यिक एवं वैचारिक समस्याओं पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए निबन्धों के विषयों की खोज की हास्य-व्यंग्य के स्थान पर इनमे गम्भीरता अधिक है।
3. शुक्ल युग (सन् 1920 ई. से 1940 ई. तक)
हिन्दी निबन्ध के तृतीय चरण को शुक्ल युग की संज्ञा प्रदान की गई है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबन्ध क्षेत्र में पदार्पण करने से इसे नए आयाम एवं नई दिशाएं प्राप्त हुई। उन्होने 'चिन्तामणि' में जो निबन्ध संकलित किए है. उनसे हिन्दी निबन्ध अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा दिखाई पड़ता है। वस्तुतः निबन्ध कला के सभी गुण इनके निबन्धों में उपलब्ध होते है। शुक्ल जी के निबन्धों में भाव एवं विचार का अर्थात् हृदय एवं बुद्धि का सन्तुलित समन्वय है। यदि कहा जाए कि 'शैली ही व्यक्तित्व है' तो यह कथन शुक्ल जी के निबन्धों पर पूर्णत: चरितार्थ होता है। शुक्ल जी ने विषयानुरूप सभी शैलियों का प्रयोग किया है। कहीं वे सूत्र शैली का प्रयोग करते है तो कहीं शोधपरक गवेषणात्मक शैली का।
आचार्य शुक्ल के अतिरिक्त इस काल के अन्य चर्चित निबन्धकार है - बाबू गुलाबराय पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, वियोगी हरि राय कृष्णदास, वासुदेवशरण अग्रवाल, शान्तिप्रिय द्विवेदी और माखनलाल चतुर्वेदी। इनमें से बाबू गुलाबराय को हिन्दी निबन्ध साहित्य की एक उपलब्धि कहा जा सकता है। उनके निबन्ध संग्रहों के नाम है-'मेरे निबन्ध', 'मेरी असफलताएं' और फिरनिराशा क्यों ' गुलाबराय जी एक उच्चकोटि के आलोचक भी थे अतः उनके कुछ निबन्धों में साहित्यिक समस्याओं पर विचार किया गया है। कुछ निबन्ध नितान्त वैयक्तिक है, जिन्हें रोचक ढंग से लिखा गया है तथा इनमें उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू उमर का सामने आए हैं।
बख्शी जी के निबन्ध 'कुछ' और 'पंचपात्र' में संकलित है, जिनमें मौलिक विचार एवं नूतन शैली के दर्शन होते है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि शुक्ल युग हिन्दी निबन्ध के विकास का स्वर्ण युग है। इस युग में निबन्धों का विषय क्षेत्र अधिक व्यापक हुआ साथ ही उसमे गम्भीरता एवं सूक्ष्मता भी आई। ये निबन्ध मनोविज्ञान, साहित्य, संस्कृति, इतिहास सभी विषयों को समाविष्ट किए हुए हैं। इन विषयों की मौलिक समस्याओं को बड़ी सूक्ष्म पकड़ के साथ प्रस्तुत किया गया, किन्तु निबन्धो में भावुकता एवं आत्मीयता का तत्व भी पर्याप्त मात्रा में बना रहा। निजी अनुभूतियों एवं वैयक्तिक भावनाओं का प्रकाशन भी शुक्ल युग के निबन्धकारों ने खूब किया है। भाषा-शैली की दृष्टि से यह युग द्विवेदी युग की तुलना में अधिक विकसित एवं प्रौढ़ है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इस युग की महानतम उपलब्धि है। और वे हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ निबन्धकार कहे जा सकते है।
4. शुक्लोत्तर युग (सन् 1940 ई. उपरान्त)
शुक्ल जी ने हिन्दी निबन्ध को जो नए आयाम दिए उससे हिन्दी निब का परवर्तीकाल में विविधमुखी विकास हुआ। विषय क्षेत्र, वैचारिकता, भाषा-शैली सभी दृष्टियों से हिन्दी निबन्ध ने नई दिशाएं खोजी। इस काल में न केवल समीक्षात्मक और विचारात्मक निबन्धों की ही रचना हुई अपितु ललित निबन्धो की भी पर्याप्त रचना हुई शुक्लोत्तर निबन्धकारों में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, डॉ. नगेन्द्र रामधारी सिंह 'दिनकर', जयशंकर प्रसाद, इलाचन्द्र जोशी, जैनेन्द्र, प्रभाकर माचवे, डॉ. भगीरथ मिश्र डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय, देवेन्द्र सत्यार्थी, कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' आदि उल्लेखनीय है।
आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी शुक्ल जी की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले प्रमुख निबन्धकार हैं। उनके निबन्ध 'आधुनिक साहित्य', 'नया साहित्य नए प्रश्न' में संकलित है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी शुक्लोत्तर युग के सर्वश्रेष्ठ निबन्धकार माने जा सकते हैं। इनके प्रकाशित निबन्ध संग्रहों में 'कल्पलता', 'अशोक के फूल', 'कुटज', 'विचार प्रवाह', 'विचार और बितर्क' उल्लेखनीय है। द्विवेदी जी के निबन्धों का विषय क्षेत्र व्यापक है। द्विवेदी जी की शैली विषय के अनुरूप परिवर्तित होती रही है। आधुनिक युग की विकृतियों का चित्रण करते समय वे प्रायः हास्य-व्ययमयी शैली का प्रयोग करते है, जबकि कालिदासयुगीन वातावरण का चित्रण करते समय शब्दावली संस्कृतगर्भित हो गई है।
शान्तिप्रिय द्विवेदी शुक्लोत्तर युग के प्रमुख समीक्षात्मक निबन्ध लेखक के रूप में जाने आते हैं। 'सचारिणी' 'युग और साहित्य', 'घरातल', 'आधान', 'साकल्य', 'पृन्त और विकास' उनके प्रमुख निबन्ध संग्रह है। इन निबन्ध संकलनों का हिन्दी साहित्य में विशिष्ट स्थान है। शैली की दृष्टि से भी ये निबन्ध सरस एवं प्रभावोत्पादक है।
हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने भी निबन्ध रचना में योगदान किया है। 'अर्धनारीश्वर', 'हमारी सांस्कृतिक एकता', 'प्रसाद पन्त और मैथिलीशरण राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीयता साहित्य' उनके निबन्ध संग्रह के नाम है।
डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के निबन्ध पुरातत्व एवं भारतीय संस्कृति में सम्बन्धित है। पृथ्वीपुत्र, मातृभूमि, कला और संस्कृति आदि उनके प्रमुख निबन्ध संकलन है।
डॉ. नगेन्द्र शुक्लोत्तर युग के एक अन्य प्रमुख निबन्धकार है। उनके प्रमुख निबन्ध संग्रहों के नाम हैं - विचार और विवेचन, विचार और अनुभूति, विचार और विश्लेषण आदि। यद्यपि उनके निबन्धों में विषय की प्रधानता है तथापि उनमें लेखक के व्यक्तित्व का समावेश भी हुआ है। साहित्य और कला जैसे विषयो पर भी उनके निबन्ध संग्रह प्रकाशित हुए है। 'कला, कल्पना और साहित्य', तथा 'साहित्य की झांकी' में उन्होंने उत्कृष्ट निबन्ध प्रस्तुत किए हैं।
डॉ. रामविलास शर्मा प्रगतिशील निबन्धकार माने जाते है जिन्होंने व्यग्यपूर्ण शैली में गम्भीर विचारों को निबन्ध का रूप दिया है। 'प्रगति और परम्परा' तथा 'प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं' में उन्होंने विषय का प्रतिपादन 'प्रगतिवादी' दृष्टिकोण से किया है।
इनके अतिरिक्त इस काल में पं. विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय, विनय मोहन शर्मा, कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' नलिन विलोचन शर्मा, प्रभाकर माचवे आदि अनेक निबन्धकारो ने निबन्ध रचनाएं प्रस्तुत की है।
हिन्दी निबन्ध साहित्य ने बहुत कम समय में आशातीत प्रगति की है। भारतेन्दु युग से लेकर वर्तमान युग के हिन्दी निबन्ध ने क्रमशः प्रौढ़ता प्राप्त की है। और निबन्धों का विविधमुखी विकास हुआ है।
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