विभिन्न प्रतिष्ठित विद्वानों द्वारा साहित्य के इतिहास पर काल विभाजन एवं नामकरण के औचित्य की दृष्टि से प्रकाश डालिये।

एम. ए. हिंदी 

(प्रथम सेमेस्टर)

आदिकाल एवं पूर्व मध्यकाल 

(प्रथम प्रश्न-पत्र)

 इकाई-1. आदिकाल-इतिहास दर्शन और साहित्येतिहास दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 7. विभिन्न प्रतिष्ठित विद्वानों द्वारा साहित्य के इतिहास पर काल विभाजन एवं नामकरण के औचित्य की दृष्टि से प्रकाश डालिये।

उत्तर- डॉ. नगेन्द्र ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में काल-विभाजन और नामकरण के निम्नलिखित आधार प्रस्तुत किये हैं-

(1) ऐतिहासिक काल-क्रम के अनुसार - आदि-काल, मध्य काल, संक्रान्ति काल, आधुनिक काल आदि । 

(2) शासक और उनके शासन काल के अनुसार - एलिजाबेथ युग, विक्टोरिया युग, मराठा-काल आदि । 

(3) लोकनायक और उनके प्रभाव के अनुसार - चैतन्य काल (बांग्ला), गाँधी युग (गुजरात) आदि ।

(4) साहित्य, नेता एवं उनकी प्रभाव परिधि के आधार पर - रवीन्द्र युग, भारतेन्दु युग आदि । 

(5) राष्ट्रीय, सामाजिक अथवा सांस्कृतिक घटना या आन्दोलन के आधार पर - भक्ति काल, पुनर्जागरण काल, सुधार काल, युद्धोत्तर काल (प्रथम विश्व युद्ध के बाद का काल-खण्ड) स्वातन्त्र्योत्तर काल आदि । 

(6) साहित्यिक प्रवृत्ति के आधार पर - रोमानी युग, रीति काल, छायावाद युग आदि ।

    पहले तो विद्वानों में हिन्दी के उदय काल के सम्बन्ध में ही मत वैषम्य है। कुछ विद्वान् राजा भोज के पूर्वज राजा मान के शासन काल को हिन्दी-ग्रन्थ-रचना का उदय-काल मानते हैं। उनके अनुसार राजा मान के शासन काल में 770 विक्रमी के लगभग पुष्प नाम के किसी कवि ने दोहों में अलंकार-ग्रन्थ की रचना की, किन्तु दुर्भाग्य से उक्त ग्रन्थ अनुपलब्ध है। फिर इसे कैसे प्रमाणित माना जाय ?

    हिन्दी साहित्य के इतिहास के लेखकों के लिए हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन सदैव ही समस्यामूलक एवं विवादग्रस्त रहा है। अपभ्रंश के अंचल से हिन्दी के उदय के अनन्तर उसमें साहित्य-सृजन का क्रम चलता रहा है। एक सहस्त्र वर्षों के रचना काल को किस आधार पर विभाजित किया जाय, निःसन्देह एक समस्या है।

    राजनाथ शर्मा ने अपने ग्रन्थ 'हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास' में 'साहित्य के इतिहास सम्बन्धी कुछ उस समस्याएँ' के अन्तर्गत यह प्रश्न उपस्थित करते हुए लिखा है- 'किसी भी भाषा के साहित्य के इतिहास का अध्ययन करते समय कई समस्याएँ उठ खड़ी होती है, जैसे-यदि किसी साहित्य का सर्वप्रथम और सर्वमान्य ग्रन्थ उपलब्ध न हो तो साहित्य का आरम्भ कब से माना जाय ? ऐसा होता है कि कुछ साहित्यकारों और उनके द्वारा रचित किसी ग्रन्थ या ग्रन्थों का उल्लेख किसी प्राचीन साहित्यिक ग्रन्थ में जाता है और कुछ लोग उसी उल्लिखित ग्रन्थ या ग्रन्थों से उस साहित्य का आरम्भ घोषित कर देते हैं। इसके विपरीत कुछ इतिहास-लेखक अपनी मान्यतानुसार किसी उपलब्ध साहित्यिक ग्रन्थ को ही उस साहित्य का सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ मानकर, उस साहित्य का आरम्भ उसी से मानने लगते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ इतिहास लेखक कतिपय सर्वाधिक प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थों के आधार पर अनुमान द्वारा उस साहित्य का आरम्भ उन ग्रन्थों की रचना - शताब्दी से मानने लगते हैं। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते समय, विभिन्न विद्वानों ने उपर्युक्त प्रक्रियाओं का ही आधार ग्रहण किया है। हमें इन प्रक्रियाओं में से उपलब्ध सामग्री के आधार पर आरम्भ मानने वाली पद्धति को ही अपना आधार समझना चाहिए, क्योंकि जब तक कोई उल्लिखित प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध ही न हो तो उसके बिना हम उसके आदि स्वरूप का निर्धारण और विवेचन कैसे कर सकते हैं ? इसलिए हमें उपलब्ध सामग्री को ही आधार बनाकर आगे बढ़ना पड़ेगा। इतिहास निराधार कल्पनाओं के बल पर आगे नहीं बढ़ता।

    उक्त प्रामाणिकता के अभाव में पण्डित रामचन्द्र शुक्ल ने सं. 1050 विक्रमी से हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ माना है और हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सं. 1000 विक्रमी से। मिश्र बन्धुओं ने सं. 700 वि. से हिन्दी-साहित्य का उदय स्वीकार किया है। प्रारम्भिक ग्रन्थ रचना का अभाव काल विभाजन की प्रमुख समस्या है। इसके अतिरिक्त युगीन प्रवृत्ति का निर्धारण भी सरल कार्य नहीं है। लोक-जीवन एक साथ ही न जाने कितनी प्रवृत्तियों में आब रहता है। ऐसा कोई कठोर अनुशासन तो है नहीं कि एक बार में एक ही प्रवृत्ति का अधिकार रहा हो। जिस प्रवृत्ति ने एक बार जन्म ले लिया है, वह फिर समाप्त नहीं होती, चाहे वेग भले ही कम हो जाय। वीरगाथा काल, भक्ति काल तथा रीति काल की प्रवृत्तियाँ आज भी जीवित है। प्रवृत्ति-विशेष के उदय और विकास को भी किसी विशेष संवत् या संवत्सर की कठोर लक्ष्मण-रेखा में आब नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए सं. 1375 वि. को वीरगाथा काल का अन्तिम वर्ष माना गया है तो क्या इस सम्बन्ध में आकाशवाणी द्वारा साहित्यकारों को यह आदेश दिया गया था कि वर्ष के अन्तिम दिन के अन्तिम क्षण के बाद अब आगे इस सन्दर्भ में साहित्य-रचना नहीं होगी और दूसरे दिन से ही भक्त कवियों की हृतंत्री से भक्ति के स्वर मुखर हो उठे हों। यदि अपने विशु रूप में प्रवृत्तिमूलक विभाजन सम्भव नहीं है तो काल-क्रम-मूलक विभाजन का भी क्या आधार हो सकता है ? प्रवृत्ति के अभाव में एक युग तथा दूसरे युग के साहित्य-सृजन के मध्य किस प्रकार एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींची जाय ? इतने सारे प्रश्नों की श्रृंखला ने सदैव इतिहासकारों को अभिभूत किया है। किसी देश के इतिहास की भाँति हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन की आवश्यक समझा गया है और इतिहासकारों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से आधार की प्रतिष्ठा करके उक्त विभाजन किया है जो भले ही सर्व सम्मत न हो सका हो, किन्तु है तो सही । विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने आधारानुकूलित काल विभाजन किये हैं जो कहीं प्रवृत्तिमूलक तथा कहीं कला-क्रमानुगत हैं तो कहीं दोनों के मिले-जुले रूप हैं। उनका संक्षिप्त आलोचनात्मक सर्वेक्षण निम्न प्रकार है-

    डॉ. ग्रियर्सन द्वारा काल - विभाजन - हिन्दी-साहित्य के इतिहास के काल-विभाजन का प्रथम प्रयास डॉ. ग्रियर्सन ने किया। उन्होंने समग्र हिन्दी साहित्य के इतिहास को निम्नलिखित 11 कालों में विभाजित किया- 

'मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान' के आधार पर-


(1) चारण-काल, (2) पन्द्रहवीं शताब्दी का धार्मिक पुनर्जागरण, (3) जायसी की प्रेम कविता, (4) ब्रज का कृष्ण सम्प्रदाय, (5) मुगल दरबार, (6) तुलसीदास, (7) रीति-काव्य, (8) तुलसी के अन्य परवर्ती कवि, (9) अठारहवीं शताब्दी, (10) कम्पनी के शासन में हिन्दुस्तान, (11) महारानी विक्टोरिया के शासन में हिन्दुस्तान। 

    डॉ. ग्रियर्सन के इस काल - विभाजन में वैज्ञानिक दृष्टि का अभाव है। चारण काल आदि में प्रवृत्तिमूलक विभाजन ध्वनित है तो अठारहवीं शताब्दी आदि-काल-क्रमानुसार विभाजन के द्योतक हैं। अन्य काल अध्यायों के शीर्षक जैसे मालूम होते हैं। चौदहवीं शताब्दी का उल्लेख ही नहीं है। 'मुगल दरबार', 'कम्पनी के शासन में हिन्दुस्तान' और 'महारानी विक्टोरिया के शासन में हिन्दुस्तान' आदि शीर्षक देशी इतिहास के जैसे मालूम होते हैं। नामकरण में साहित्य के परिप्रेक्ष्य में लोक-वृत्ति की संगति नहीं बैठती।

    मिश्र बन्धुओं द्वारा हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन - इस दशा में दूसरा प्रयास मिश्र बन्धुओं का है। उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास को निम्नलिखित कालों में विभाजित किया है - 

    पूर्वारम्भिक काल (सं. 700-1343 वि.), उत्तराम्भिक काल (सं. 1344-1444 वि.), पूर्व-माध्यमिक काल (1445-1560 वि.), प्रौढ़-माध्यमिक काल (सं. 1561-1690 वि.), पूर्वालंकृत आधुनिक काल (सं. 1691-1789 वि.), अज्ञात काल (उत्तरालंकृत आधुनिक काल ), ( गद्य काल एवं परिवर्तन काल) (1790-1889 वि.), परिवर्तन काल (सं. 1890-1925 वि.), वर्तमान काल

(सं. 1926 वि. से अब तक)। 

    मिश्र बन्धुओं का यह काल-विभाजन मुख्यतया काल-गत है। पूर्वालंकृत काल तथा उत्तरालंकृत काल में प्रवृत्ति का संकेत भी मिलता है। वस्तुतः मिश्र बन्धुओं ने राजनीतिक तथा सामाजिक इतिहास के सन्दर्भ में हिन्दी साहित्य के इतिहास का रूपान्तरण किया है। इतिहास का अतीत काल, हिन्दी साहित्य के इतिहास का आरम्भिक काल है। इसी प्रकार इतिहास-कल्प के आधार पर ही मध्य काल तथा वर्तमान काल का नामकरण किया गया है। इतिहास के अतीत काल में हिन्दी साहित्य का तो क्या, हिन्दी भाषा का भी जन्म नहीं हुआ था। अतः इस विभाजन की इतिहास-कल्प से संगति नहीं बैठती। इस विभाजन में समय की अवधि भी दोषपूर्ण है। आरम्भिक काल की अवधि सात-सौ-आठ सौ वर्षों की है, जबकि परिवर्तन काल केवल 35 वर्षों का है। इस काल-विभाजन में भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव है।

    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा काल विभाजन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने डॉ. ग्रियर्सन तथा मिश्र बन्धुओं के काल विभाजन का समीकरण किया है। उन्होंने अपने काल-विभाजन को काल-क्रम से स्थिर किया है और प्रवृत्तियों के आधार पर उसका नामकरण किया है। शुक्लजी का काल विभाजन निम्न प्रकार है-

(1) आदि-काल या वीरगाथा काल (सं. 1050 वि. से 1375 वि. तक) 

(2) पूर्व-मध्य काल या भक्ति काल (सं. 1375 वि. से 1700 वि. तक)

(3) उत्तर-मध्य काल या रीति काल (सं. 1700 वि. से 1900 तक) 

(4) आधुनिक काल या गद्य काल (सं. 1900 वि. से अब तक)

    शुक्लजी का यह काल विभाजन वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक है। इसमें काव्य-प्रणयन शैली तथा ग्रन्थों की प्रसिद्धि को आधार माना है। वीररसपरक रचनाओं की प्रधानता के कारण आदि काल को वीरगाथा काल कहा गया है। इसी प्रकार पूर्व मध्य काल में भक्ति-काव्य के प्राधान्य के कारण भक्ति काल नाम दिया गया है। उत्तर-मध्य काल में श्रृंगार तथा लक्षण-ग्रन्थों के बाहुल्य के कारण उसे रीति काल की संज्ञा दी गई है। इसी प्रकार आधुनिक युग में गद्य-रचना सर्वाधिक महत्वपूर्ण होने के कारण इसे गद्य काल कहा गया है। विद्वानों ने शुक्लजी के काल विभाजन को भी उसका अन्तिम रूप नहीं माना। उदाहरण के लिए वीरगाथा काल में न केवल वीररसपरक रचनाएँ ही हुई हैं, अपितु नीति, धर्म तथा शृंगार की रचनाओं का भी अभाव नहीं है। इसी प्रकार भक्ति काल में शृंगारपरक लक्षण-ग्रन्थों की रचना हो चुकी थी। भूषण, मतिराम तथा केशव, तुलसी की मृत्यु के पूर्व ही विद्यमान थे और काव्य-रचना कर रहे थे। रीति काल में भूषण वीररस की रचना कर रहे थे और जिसे गद्य काल कहा जाता है, उसमें पद्य रचना क्या कम महत्वपूर्ण हुई है ? ज्ञानमार्गीय कवियों में न केवल ज्ञान का प्राधान्य है, उनकी भक्ति-भावना भी कम मार्मिक नहीं है। इसी प्रकार प्रेममार्गीय शाखा के प्रेमाख्यान पूर्ववर्ती परम्परा की श्रृंखला में ही लिखे गये हैं। अतः विद्वान् शुक्लजी के इस समन्वयात्मक काल-विभाजन के सम्बन्ध में भी एक मत नहीं है। डॉ. श्यामसुन्दरदास तथा डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काल-विभाजन को ही स्वीकृति दी है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का निम्नांकित 5 कालों में विभाजन किया है - 

(1) सन्धि काल (सं. 750 वि. से 1000 वि. तक)

(2) चारण काल (सं. 1000 वि. से 1975 वि. तक)

(3) पूर्व मध्य काल या भक्ति काल (सं. 1375 वि. से 1700 वि. तक)

(4) उत्तर-मध्य काल या रीति काल (सं. 1700 वि. से 1875 वि. तक)

(5) आधुनिक काल (सं. 1875 वि. से अब तक)।

    वर्माजी का यह काल-विभाजन काल-क्रम से है। उन्होंने हिन्दी साहित्य का आरम्भ सं. 750 वि. से माना है। शेष विभाजन शुक्लजी के ही अनुसार है।

    परवर्ती इतिहास-लेखकों ने यद्यपि अपने-अपने दृष्टिकोण से काल विभाजन का ही प्रयास किया है, किन्तु शुक्लजी द्वारा प्रस्तुति काल-विभाजन अभी भी अधिक व्यावहारिक, वैज्ञानिक एवं स्पष्ट है। इसमें इतना ही संशोधन अभिप्रेत है कि वीरगाथा काल को आदि-काल न मान लिया जाय। विवाद तो बना ही रहता है और साहित्य-प्रकर्ष के लिए उसका बना रहना अपेक्षित भी है।

    डॉ. नगेन्द्र ने हिन्दी साहित्य के काल-खण्डों एवं युगों के नामकरण-विभाजन की शैलियों अथवा आधारों पर विस्तार से विचार करने के पश्चात् निम्न प्रकार निष्कर्ष निकाला है-

(1) काल-विभाजन साहित्यिक प्रवृत्तियाँ और ऐतिहासिक आदशों की समानता पर होनी चाहिए। 

(2) युगों का नामकरण यथासम्भव मूल साहित्य-चेतना को आधार मानकर साहित्यिक प्रवृत्ति के अनुसार करना चाहिए, किन्तु जहाँ ऐसा भी हो सकता है वहाँ राष्ट्रीय-सांस्कृतिक प्रवृत्ति को आधार बनाया जा सकता है फिर कभी-कभ विकल्प न होने पर विशेष कालवाचक नाम को भी स्वीकार किया जा सकता है। नामकरण में एकरूपता व्याप्त है, किन्तु उसे सदा सही करने के लिए भ्रान्तिपूर्ण नामकरण उचित नहीं है।

(3) युगों का सीमांकन मूल प्रवृत्तियों के आरम्भ, अन्त और अवसान के अनुसार होना चाहिए। जहाँ साहित्य के मूल स्वर अथवा उसकी मूल चेतना में परिवर्तन लक्षित हो और नये स्वर एवं चेतना का उदय हो, वहाँ युग की पूर्व-सीमा और जहाँ वह समाप्त होने लगे, वहाँ उत्तर-सीमा माननी चाहिए। 

हिन्दी साहित्य के युगों अथवा काल-खण्डों के आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने दो-दो नाम दिये हैं। एक नाम काल-क्रम के आधार पर है और दूसरा साहित्यिक प्रवृत्ति के आधार पर है। जैसे-

क्र. समय-सीमा काल-क्रम का नाम साहित्यिक प्रवृत्ति का नाम

1. (संवत् 1050-1375) आदि-काल वीरगाथा काल

2. (संवत् 1375-1700) पूर्व-मध्य काल भक्ति काल

3. (संवत् 1700-1900) उत्तर-मध्य काल रीति काल

4.(संवत् 1900 से अब तक) आधुनिक काल गद्य काल

    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा हिन्दी साहित्य के इतिहास के काल-खण्डों के जो नाम दिये गये हैं, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में उन्हीं को महत्ता देकर अध्ययन-अध्यापन चल रहा है। अनेक मनीषियों ने इस नामकरण पर आपत्तियाँ उठाई हैं, उनका दिग्दर्शन निम्न प्रकार है-

(1) आदि-काल - ग्रियर्सन ने चारण काल, मिश्र बन्धुओं ने रासो काल, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी और डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने अपभ्रंश काल, राहुल सांकृत्यायन ने सामन्त युग, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीजवपन काल, डॉ. रामकुमार वर्मा ने चारण काल तथा डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आदि काल कहा है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने आदि काल को काल-क्रम के अनुसार सन्धि काल नाम दिया है। शुक्लजी असन्तुष्ट एवं असहमत थे। ये विद्वान् भी कोई ऐसा नाम नहीं सुझा सके है जो सभी को मान्य अथवा आपत्तिविहीन हो ।

(2) पूर्व-मध्य काल - इसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रवृत्ति के आधार पर भक्ति काल नाम दिया है। इस नाम से भी लोग सहमत नहीं हैं। विद्वानों ने इसमें अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोष निकाले हैं। भक्ति का सम्बन्ध सकारोपासना और अवतारवाद से है। शुक्लजी ने संवत् 1375 से संवत् 1400 तक के जिस काल-खण्ड को भक्ति काल कहा है उसका विभाजन निर्गुण और सगुण दो धाराओं में किया है। निर्गुण की भक्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि निर्गुणोपासक ईश्वर को निराकार मानते हैं और उसके अवतार से सहमत नहीं हैं। कुछ लोग भक्ति काल को धर्म काल कहना उचित समझते है। यह नाम भी उचित प्रतीत नहीं होता। पूर्व मध्य काल की कविता में धर्म का विवेचना नहीं है। यदि धर्म शब्द पर बल दिया जाये तो वीरगाथा काल अथवा आदि-काल को भी धर्म काल कहना पड़ेगा, क्योंकि शु शक्तियों का धर्म था और यु करके वे अपने धर्म का निर्वाह कर रहे थे। डॉ. नगेन्द्र के इस मत से सहमत होने के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं है कि भक्ति काल और आधुनिक काल के विषय में मतभेद नहीं है।

(3) उत्तर-मध्य काल - इसे शुक्लजी ने रीति काल कहा है। इस नाम पर आपत्ति उठाते हुए डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है कि, रीति काल के विषय में मतभेद परिधि सीमित है। वहाँ विवाद का विषय इतना ही है कि उस युग के साहित्य में रीति तत्व प्रमुख है या शृंगार तत्व, प्राचुर्य दोनों का ही है, पर इन दोनों में भी महत्व किसका है ? हमारा विचार है कि जिस युग रीति तत्व का समावेश केवल शृंगार में ही नहीं, भक्ति काव्य और वीर काव्य में भी हो गया था अथवा यह कहें कि जीवन का स्वरूप ही बहुत कुछ रीतिब हो गया था। उसका नाम रीति काल ही अधिक समीचीन है। इसके विकल्प शृंगार काल में अति व्याप्त है, क्योंकि श्रृंगार का प्राधान्य तो प्रायः सभी युगों में रहा है, वह काव्य का एक प्रकार से सार्वभौम तत्य है, अतः उसके आधार पर नामकरण अधिक संगत नहीं होगा इस युग का श्रृंगार रीतिब था, अतः रीति ही यहाँ प्रमुख है।

(4) आधुनिक काल - इसको शुक्लजी ने गद्य काल नाम दिया है। इसके दोनों नामों पर आपत्ति की गई है। आधुनिक काल की कोई समय-सीमा नहीं है। अन्ततः आधुनिक काल कब तक चलेगा। गद्य काल के विषय में भी यह आपत्ति उठाई गई है कि इस काल में काव्य-निर्माण कम मात्रा में हुआ। आधुनिक काल कब तक ? इस प्रश्न का तो कोई उत्तर नहीं है, इस समस्या का कोई समाधान नहीं है। अभी इसका साहस कोई नहीं कर पाया है कि आधुनिक काल की समाप्ति कब की जाये और इसके पश्चात्वर्ती समय को क्या नाम दिया जाये ? कुछ मनीषी यह संकेत तो करते रहे हैं कि अब तक को काल का आधुनिक काल और उसके बाद के काल को वर्तमान काल कहा जाये। वर्तमान काल और आधुनिक काल दोनों ही समानार्थी हैं, पर दोनों को उसी प्रकार पृथक् समझा जाये जिस प्रकार मुख्यमन्त्री और प्रधानमन्त्री समानार्थी होते हुए भी इस समय भिन्न-भिन्न अर्थ के वाचक हो रहे हैं। प्रधानमन्त्री प्राइम मिनिस्टर' का तथा मुख्य मन्त्री 'चीफ मिनिस्टर' का वाचक बन गया है।

    डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त ने हिन्दी साहित्य को केवल तीन कालों में ही विभाजित किया है। उन्होंने भक्ति काल एवं रीति काल को केवल मध्य काल कहा है, क्योंकि दोनों ही साहित्यिक चेतना समान है। 

    डॉ. नगेन्द्र ने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के आधुनिक काल का विभाजन प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय उत्थान नाम से किया है। उन्होंने प्रथम उत्थान को 'भारतेन्दु युग' एवं द्वितीय उत्थान को 'द्विवेदी युग' कहा है। तृतीय उत्थान के विषय में वे मौन रहे हैं। तृतीय उत्थान को विद्वानों ने 'शुक्ल युग' नाम दिया है तथा उसके पश्चात्वर्ती काल खण्ड को शुक्लोत्तर युग कहा है।

डॉ. नगेन्द्र ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का जो काल - विभाजन और नामकरण किया है, वह निम्न प्रकार है - 

(1) आदि-काल - सातवीं शती के मध्य से चौदहवीं शती के मध्य तक।

(2) भक्ति काल - चौदहवीं शती के मध्य से सत्रहवीं शती के मध्य तक ।

(3) रीति काल - सत्रहवीं शती के मध्य से उन्नीसवीं शती के मध्य तक ।

(4) आधुनिक काल - उन्नीसवीं शती के मध्य से अब तक।

डॉ. नगेन्द्र ने आधुनिक काल का विभाजन निम्न प्रकार किया है-

(1) पुनर्जागरण काल (भारतेन्दु काल) - 1857 से 1900 ई. तक

(2) जागरण-सुधार काल (द्विवेदी काल) - 1900 से 1918 ई.

(3) छायावाद काल - 1918 से 1938 ई.

(4) छायावादोत्तर काल - 

(क) प्रगति काल - 1938 से 1953 ई.

(ख) नवलेखन काल - 1953 ई. से अब तक


Hindi sahitya ke Kal vibhajan ewam namkaran ke sambandh me vibhinna vidwano ke auchitya par prakash daliye?

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