1. वागवयव और उनके कार्य को समझाइए।
उत्तर -
वागवयव और उनके कार्य
वागवयव को दो भागों में बांटा जा सकता है चल और अचल
1. चल - अवयव ध्वनियों का उच्चारण करते समय जिन्हें ऊपर उठाया अथवा नीचे गिराया जाता है, वे चल अवयव हैं। जीभ के विभिन्न भाग और स्वर तंत्रियाँ चल अवयव हैं। इन्हें करण संज्ञा भी दी जाती है।
2. अचल - मुख का ऊपर का भाग अचल अवयव के अंतर्गत आता है। इसमें ऊपर के दाँत, ऊपर का ओष्ठ तथा तालु के विभिन्न भाग अचल अवयव हैं; जैसे -
- उपाली जिव्ह - (गलबिम्ब,कंठ, और कण्ठमार्ग)
- भोजन नलिका
- स्वर यंत्र - (कंठपीटक)
- स्वर यंत्र मुख - (काकल)
- स्वर तंत्री - (ध्वनि तंत्री)
- स्वर यंत्र मुख आवरण - (अभिकाकल, स्वरयंत्रावरण)
- नासिका-विवर
- मुख विवर
- अलीजिवह - (कीवा, घंटी, शुंडिका)
- कंठ
- कोमल तालु
- मूर्द्धा
- कठोर तालु
- वत्र्स
- दंत
- ओष्ठ
- जिव्हामध्य
- जिव्हाग्र - (जिव्हाफलक)
- जिव्हा नोंक - (जिव्हापृष्ठ)
- जिव्हा
- जिव्हा पश्च - (जिव्हापृष्ठ)
- जिव्हामूल।
श्वास नलिका, भोजन नलिका तथा अभिकाकल -
श्वास नलिका के मार्ग से वायु फेफड़ों में जाती है और उन्हें स्वच्छ करके पुनः श्वास नलिका के मार्ग से ही बाहर निकल जाती है। श्वास नलिका के पीछे अमाशय तथा फैली भोजन नलिका है। जो अमाशय तक जाती है और इन दोनों को पृथक करने के लिए दोनों के मध्य एक दीवार है। भाजन नलिका के विवर के साथ श्वास नलिका की ओर झुकी हुई एक छोटी सी जीभ है जिसे अभिकाकल अथवा स्वर यंत्र मुख आवरण कहते हैं।
भोजन पानी मुँह के मार्ग से होता हुआ जब भोजन नलिका के मुख के पास पहुँचता है तो अभिकाकल नीचे झुककर श्वास नलिका को बंद कर देता है और भोजन या पानी सरककर आगे भोजन नलिका में चला जाता है। यदि वह ऐसा न करे, और भोजन श्वास नलिका में चला जाए तो मनुष्य की श्वास क्रिया रुक सकती है और उसकी मृत्यु हो सकती है। हम प्रायः देखते हैं की यदि कभी असावधानी के कारण अन्न का एकाध कण अथवा जलबिंदु श्वास नलिका में चले जाते हैं तो मनुष्य की हाँफते हाँफते बुरी हालत हो जाती है। उस समय फेफड़े की वायु ही अपनी पूरी शक्ति से अवांछित पदार्थ को श्वास नलिका से बाहर फेंककर मनुष्य को स्वस्थ बनाती है। कदाचित यही कारण है कि भारतीय स्वास्थ्य वैज्ञानिकों ने भोजन करते समय मौन धारण करने के नियम विधान किया है।
जिस प्रकार भोजन का स्वाभाविक मार्ग मुख से होते हुए भोजन नलिका में है उसी प्रकार श्वास का स्वाभाविक मार्ग नासिका विवर से होते हुए श्वास-नलिका में है। पशुओं की ध्वनि सदैव अनुनासिक होती है। क्योकि उनके उच्चारण के समय वायु का अधिकांश भाग उनकी नासिका से ही निकलता है मनुष्य के उच्चारण में भी कभी-कभी अकारण अनुनासिकता आ जाती है। सर्प - साँप, वक्र-बांका आदि इसके उदाहरण हैं।
स्वरयंत्र, स्वरयंत्र मुख और स्वरतंत्री -
श्वास नलिका के ऊपर के भाग में और अभिकाकल के कुछ नीचे ध्वनि उत्पादक प्रधान अवयव होता है जो ध्वनि यंत्र अथवा स्वरयंत्र कहलाता है। जो किन्ही व्यक्तियों के गले में उभरी हड्डी (टेंटुआ) के रूप में दृष्टिगोचर होता है। वह यही है इस स्वर यंत्र में पतली झिल्ली के दो लचीले कपाट होते हैं जो स्वरयंत्री या स्वर रज्जु कहलाते हैं। डॉ. तिवारी इनके रूपाकार के आधार पर इन्हें 'स्वरओष्ठ' नाम देते हैं। स्वर ओष्ठों (अथवा स्वर तंत्रियों) के खुले भाग को स्वर यंत्रमुख अथवा काकल कहते हैं। सांस लेते या बोलते समय वायु इसी मुख (काकल) से भीतर आती है तथा जाती है। स्वर तंत्रियों की सहायता से ही कई प्रकार की ध्वनियाँ उत्पन्न की जाती हैं। ऐसा करते समय कभी स्वरतंत्रियों को एक-दूसरे के समीप तो कभी एक-दूसरे से दूर जाना पड़ता है।
Wagvay aur unke karya ko samjhaeye.
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