अर्थ विस्तार और अर्थ संकोच को स्पष्ट कीजिये?

1. अर्थ विस्तार और अर्थ संकोच को स्पष्ट कीजिये?

उत्तर - यह अर्थ परिवर्तन की दो दिशाएं हैं। वैसे से अर्थ परिवर्तन की तीन दिशाएं होती हैं लेकिन यहां पर इन्ही दो दिशाओं के बारे में बताया गया है क्योकि प्रश्न में इन्हीं दो दिशाओं अर्थ विस्तार और अर्थ संकोच को पूछा गया है -

1. अर्थ विस्तार - डॉ. सक्सैना के अनुसार, जब शब्दों का अर्थ सीमित एवं संकुचित क्षेत्र से निकलकर अधिक विस्तृत एवं व्यापक हो जाता है, तब उसे 'अर्थ विस्तार' कहते हैं। 

डॉ. कपिल द्वेदी और डॉ. सक्सैना ने इसे इस रूप में स्पष्ट किया है -

  1. स्याही - यह शब्द पहले भाग काले रंग की मसि हेतु ही प्रयुक्त था, कालांतर में अन्य रंगों की मसि (नीली, लाल, हरी) का लेखन में प्रयोग होने से अब सभी रंगों की मसि हेतु 'स्याही' शब्द प्रयुक्त होने लगा। 
  2. कुशल - इस शब्द का अर्थ था - कुशल (कुशों को लाना या लेना), कुश का अग्रभाग तीक्षण होने के कारण उसको समेत कर लाना थोड़ा कष्टकारक है। अतः कुश लाना चतुरता सूचक था। इसी से 'तीक्ष्ण बुद्धि' को भी 'कुशाग्र बुद्धि' कहा जाता था। धीरे-धीरे यह अर्थ विस्तार को प्राप्त होकर 'निपुणता' का धोत्तक हो गया। 
  3. गवेषणा - इसका वास्तविक अर्थ गाय को खोजना या चाहना था। पर वह ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि के से विस्तार को प्राप्त कर 'खोज' या 'अन्वेषण' का अर्थ पा गया। 
  4. द्रव्य - इसका मूलार्थ था 'द्रु' अर्थात लकड़ी से बना हुआ पदार्थ। परन्तु आगे चलकर यह भी विस्तार को प्राप्त होकर 'धन', 'आत्मा' आदि गुणवान पदार्थों का वाचक हो गया। 
  5. प्रवीण - इस शब्द का अर्थ-प्रकृष्टोवियणायाम (वीणा वादन में श्रेष्ठ या निपुण) था। यह शब्द वीणा-वादन की निपुणता को छोड़कर 'निपुण' या 'दक्ष' अर्थ में प्रयुक्त होने लगा, यह भी अर्थ -विस्तार का ही प्रभाव है; यथा - वह कला में प्रवीण है। 
  6. महाराज - यह शब्द राजा वाचक था, पर अपने अर्थ-विस्तार को प्राप्त होकर 'रसोइया' के अर्थ में सीमित हो गया। 
  7. जयचंद्र - यह एक कन्नौज का राजा था, पर आज देश-द्रोही को 'जयचंद' कहकर सम्बोधित किया जाता है। 
इसी प्रकार के अनेक उदाहरण हैं। इधर-उधर भिड़ाने वाले को 'नारद मुनि' सत्यवादी को 'हरिश्चंद्र' आततायी को 'हिटलर' आदि इसी प्रकार के अर्थ विस्तार हैं। 

2. अर्थ संकोच - डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सैना के अनुसार, जहाँ बहुत से शब्दों का अर्थ कभी अधिक व्यापक एवं विस्तृत था किन्तु कालांतर में शब्द किसी एक संकुचित अर्थ में ही प्रयुक्त होने लगे, तब उसे 'अर्थ संकोच' कहा गया। अर्थ संकोच में प्रायः किसी शब्द का प्रयोग विस्तृत था। व्यापक अर्थ से हटकर विशिष्ट या सीमित अर्थ में होने लगता है। 'मृग' शब्द पहले सभी प्रकार के जंगली जानवरों के लिए प्रयुक्त होता था पर हिंदी में अब इसका प्रयोग 'हिरन' के लिए होने लगा। आचार्य विश्वनाथ ने साहित्य दर्पण में कहा है, "शब्दों की व्युतपत्ति का आधार दुसरा है और प्रयोग का आधार दुसरा" इस प्रकार लोक व्यवहार के आधार पर ही प्रयोग होता है, व्युतपत्ति के आधार पर नहीं। यहीं 'अर्थ संकोच' कहा जाता है। 

प्रो. मिशेल ब्रेआल की मान्यता है कि राष्ट्र या जाति जितनी अधिक विकसित होगी, उसकी भाषा में 'अर्थ संकोच' के उदाहरण उतने ही अधिक मिलेंगे। इसका अभिप्राय यह है की संस्कृति और सभ्यता के विकास में समान्य शब्द विशेष अर्थों में प्रयुक्त होने लगते हैं। विद्वानों ने अर्थ संकोच के अनेक उदाहरण दिए हैं, जिनमें से कुछ यहां प्रस्तुत है -

  1. समास - समास भी अर्थ संकोच में सहायक होते हैं। कृष्ण+सर्प (सर्प की एक जाति), राज + पुरुष (राजपुरुष), राजकीय कर्मचारी, गजवरन = गणेश, पुरारि = शिव, वश्यती हरः = सुनार (देखते-देखते चुराने वाला) . 
  2. उपसर्ग - उपसर्ग के संयोग से भी अर्थ-संकोच भी भूमिका का निर्वाह हो जाता है। 'ह' धातु में विविध उपसर्ग जुड़कर उसके अर्थ का संकोच कर देते हैं; यथा - हार से वि + हार = विहार, संहार, प्रहार, आहार, उपहार, निराहार आदि बनते हैं। 
  3. प्रत्यय - 'प्रत्यय' भी अर्थ संकोच की भूमिका का निर्वाह करते हैं; यथा - बाग़ से बगीचा, घर से घरूआ, कथा से  कोठारी। यूज = योग, योजना, आयोजन, प्रयोजन आदि। 
  4. विशेषण - इसके प्रयोग से ही अर्थ संकोच हो जाता है; यथा - जन = दुर्जन, सज्जन। आधार = दुराचार, सदाचार, कदाचार। 
  5. नामकरण - 'नामकरण' भी अर्थ संकोच का आधार बनता है; यथा - 'कृष्ण' का अर्थ है काला, पर यह मात्र यशोदा के लाल कृष्ण तक सिमित रह गया है। 'शत्रुघ्न' का अर्थ है शत्रुओं का विनाशक, पर अब मात्र यह राम भ्राता समित्रा पुत्र हेतु प्रयुक्त होता है। 
  6. विशेषीकरण - 'विशेषीकरण' भी अर्थ संकोच में सहायक  होता है, यथा- निरुक्त का अर्थ है निवेचनशास्त्र, किन्तु आजकल केवल यास्क मुनि रचित शास्त्र को ही 'निरुक्त' कहा जाता है। 'वेद' का अर्थ है ज्ञान, जो चारों वेदों का नाम तक सीमित रह गया-सामवेद आदि। 
  7. रूपक - 'रूपक' भी किसी शब्द अर्थ संकोच में सहायक होता है। डॉ. सक्सैना ने इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है - सौपीन बड़ी लड़ाका है, गधा = वः गधा मानता ही नहीं, सिंह = पंजाब सिंहों का प्रदेश है, कमल = आज कमल न जाने क्यों मुरझा रहा है। यहाँ ये शब्द दुष्ट, मुर्ख, वीर, मुख आदि के संकुचित अर्थ में प्रयुक्त हैं। 
  8. परिभाषिकता - परिभाषिक शब्दावली के रूप में प्रयुक्त बहुत-सी शब्दावली में अर्थ संकोच हो जाता है; यथा - 'रस' शब्द वैव्यक और साहित्य में अलग-अलग अर्थ देता है। 
Arth vistar aur arth sankoch ko spashta kijiye?

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