भ्रमर गीत सार : सूरदास पद क्रमांक 8 सप्रसंग व्याख्या By Khilawan

Bhramar Geet Saar Ki Vyakhya

अगर आप हमारे ब्लॉग को पहली बार विजिट कर रहे हैं तो आपको बता दूँ की इससे पहले हमने भ्रमर गीत के पद क्रमांक 7 की व्याख्या को अपने इस ब्लॉग questionfieldhindi.blogspot.com में पब्लिस किया था। आज हम भ्रमर गीत पद क्रमांक 8 की सप्रसंग व्याख्या के बारे में जानेंगे तो चलीये शुरू करते हैं।

भ्रमरगीत सार की व्याख्या

पद क्रमांक 8 व्याख्या
- सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल 

उद्धव ! बेगि ही ब्रज जाहु। 
सुरति सँदेस सुनाय मेटो बल्लभिन को दाहु।। 
काम पावक तूलमय तन बिरह-स्वास समीर। 
भसम नाहिं न होन पावत लोचनन के नीर।। 
अजौ लौ यहि भाँति ह्वै है कछुक सजग सरीर। 
इते पर बिनु समाधाने क्यों धरैं तिय धीर।। 
कहौं कहा बनाय तुमसों सखा साधु प्रबीन? 
सुर सुमति बिचारिए क्यों जियै जब बिनु मीन।।

शब्दार्थ : बेगी=शीघ्र। जाहु=जाओ। सुरति=प्रेम। बल्लभभिन्न=गोपियाँ। दाहु=ग्रहजन्य, पीड़ा। काम पावक=काम की अग्नि, कामाग्नि। तूलमय=रूई के समान कोमल। तन=शरीर। समीर=वायु। लोचन=नेत्र। नीर=जल। अजौ लौं = आज-तक। वहै-है=होगा। समाधानों=समाधान, धीर=धीरज। तिय=नारीयाँ। साधू=सज्जन। प्रवीन=निपुण। मीन=मछलियाँ।

संदर्भ:- प्रस्तुत पद्यांश हमारे हिंदी साहित्य के भ्रमर गीत सार से लिया गया है जिसके रचियता सूरदास जी हैं और सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं।

प्रसंग :- श्री कृष्ण उद्धव को शीघ्र ही ब्रज जाने को कह रहे हैं या निर्देश दे रहे हैं और उन्हें कह रहे हैं की वह विरह में संतप्त गोपियों को तसल्ली दें।

व्यख्या :- श्री कृष्ण कहते हैं हे उद्धव तुम शीघ्र ही ब्रज चले जाओ और वहां जाकर ब्रज की नारियों को या संतप्त गोपीयों को तसल्ली दें।

श्री कृष्ण कहते हैं हे उद्धव शीघ्र ही ब्रज चले जाओ और वहां के नारियो को मेरा संदेश सुनाओ जिससे उनके चित्त में स्थित विरह जन्य पीड़ा स्माप्त हो सके। रूई के समान कोमल शरीर कामाग्नि में प्रज्वलित हो रहे हैं विरह आदि के कारण उनकी तीव्र साँसे वायु के समान उनकी कामाग्नि को और भी भड़का रही हैं। परन्तु उनके नेत्रों से होने वाली आंसुओं की वर्षा के कारण उनके शरीर की कामाग्नि में जलने से बच गए हैं जो कवि को कहने का भाव यह है की गोपियाँ रो रो कर अपने हृदय में स्थित विरह के ताप को हल्का कर लेती हैं इस प्रकार उनका जीवन नष्ट होने से बच जाता है।

श्री कृष्ण कहते हैं हे उद्धव इसी कारण उनके शरीर में अब भी सजगता सी है। किन्तु इस सजगता का सदा बना रहना कठिन है इसलिए यदि शीघ्र उन्हें डाइस न बताया गया तो उनके लिए धैर्य धारण करना कठिन हो जायेगा।

हे सखा अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ और किस प्रकार बताकर कहूँ तुम स्वयं ही साधू स्वभाव के और विवेकशील हो इसलिए मेरे मन के भावों को समझ लेना तुम्हारे लिए कोई कठिन कार्य नहीं, तुम अपने विवेकशक्ति के बल पर स्वयं ही विचार करो बिना जल के मछलियाँ किस प्रकार जीवित रह सकती हैं।

अर्थात जैसे जल से विलग होकर मछली का जीवन नहीं चल सकता उसी प्रकार मेरे बिना गोपिकाओं का जीवन भी चलना कठिन है। मैं ही उनका सर्वस्व हूँ अतः तुम शीघ्र ही जाकर उन्हें मेरा संदेश सुनाकर संतावना दो।

विशेष :
  1. सखा साधू प्रवीण में परिकर अलंकार से विशेष अवधारणा 
  2. काम, पावक, तुलमय तन विरहू स्वास समीर में सांग रूपक अलंकार है। 
  3. भसम नाहिन होन पावत लोचन के नीर में काव्यलिंग अलंकार 
  4. सूर सुमति--- , बिनु मीन में अप्रस्तुत काव्यलिंग अलंकार का प्रयोग किया गया है। 
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