रेडियो नाटक
रेडियो नाटक के बारे में विस्तार से जानने से पहले आइए जान लेते हैं,...
रेडियो नाटक क्या है in Hindi? इस प्रश्न के बारे में -
रेडियो नाटक क्या है in Hindi?
रेडियो एक दूरभाष यंत्र है जिस यंत्र के माध्यम से कोई भी सन्देश को आवाज के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाया जाता है।
नाटक दृश्य माध्यम में प्रस्तुत किया जाता है लेकिन इसमें श्रव्य माध्यम (shravya madhyam)में प्रस्तुत किया जाता है।
रेडियो द्वारा प्रचार या किसी संदेश के लिए जो नाटक लिखे जाते हैं उसे रेडियो नाटक कहते हैं। यह दृश्य नहीं होता, श्रव्य होता है।
एक तरह से यह अंधेरे का ही नाटक होता है। अदृश्य अंधकार ही इसका रंगमंच है। दर्शक नाटक देख नहीं सकता, लेकिन सुन सकता है।
पर नाटक सुनकर एक मानसी की बिम्ब अवश्य बनता है। मन की आंख सब कुछ देख लेती है। चांदनी का दृश्य उपस्थित होने पर जैसी चांदनी देखी है वैसी ही चांदनी कल्पना में दिखाई पड़ती है।
क्योंकि यह श्रव्य है इसलिए रेडियो नाटक की कुछ सीमाएं भी है। नाट्यशाला में प्रस्तुत होने वाले नाटकों में देश, काल और स्थान का बंधन होता है, परंतु रेडियो नाटकों में इस प्रकार का कोई बंधन नहीं होता।
उसमें ध्वनियों के माध्यम से दृश्य उपस्थित होते हैं। डॉ मधुकर गंगाधर लिखते हैं - "रेडियो नाटक की कुछ सीमाएं हैं जिनसे होकर इसे गुजरना होता है।
इसकी पहली सीमा है कि यह केवल माइक के भरोसे जीता है। सिर्फ माईक ही इसको व्यक्तित्व और जीवन देता है।
दूसरी बड़ी सीमा यह है कि यह केवल सुना जाता है इसका माध्यम श्रवण है। एक श्रोता को बांधे रखने के लिए इसके पास शब्दों के अलावा कोई साधन नहीं है।
तीसरी बात यह है कि रेडियो सेटस से निरंतर कार्यक्रम चलते हैं इस बीच रेडियो नाटक का प्रसारण होता है। इसलिए इसके श्रोता सिनेमा के दर्शकों की तरह टिकट कटा कर एक जगह जमा होकर इसका इंतजार नहीं करते। इसका श्रोता तो परिवारिक गोरखधंधा में भी फँसा हो सकता है।"
रेडियो नाटक की संरचना-
रेडियो नाटक की सफलता उसके प्रसारण में ही है क्योंकि रेडियो नाटकों को रंगमंचीय रूप में प्रस्तुत करने की परंपरा नहीं है। इसलिए इसकी संरचना का सवाल उसके प्रसारण से संबद्ध है।
रेडियो नाटक की संरचना के आधारभूत तत्वों का उल्लेख डॉक्टर मधुकर गंगाधर ने अपनी पुस्तक "भारतीय प्रसारण विविध आयाम" में इस प्रकार किया है -
1. शीर्षक - रेडियो नाटक में सर्वाधिक महत्वपूर्ण उसका शीर्षक है। शीर्षक ऐसा आकर्षक एवं जीवंत हो कि श्रोता सुनकर ही प्रभावित हो जाए। इसके लिए आवश्यक है कि रेडियो नाटक के शीर्षक सरल उच्चारण योग्य, समझने लायक, रोचक तथा नवीन हो।
2. प्रारंभ - किसी भी चीज का प्रारंभ ही महत्वपूर्ण होता है। रेडियो नाटक का प्रारंभिक कुछ ऐसा होना चाहिए कि वह कलात्मक हो। रेडियो नाटक का प्रारंभ संगीत से होता है उससे श्रोता के लिए एक वातावरण तैयार होता है उसके बाद प्रारंभिक संवाद ऐसा हो जो गत्यात्मक हो। उसमें ऐसी रफ्तार हो जो श्रोताओं को बांधकर रखें और यह रफ्तार संवेदक हो आक्रामक ना हो।
3. विषय - रेडियो नाटक के लिए किसी भी विषय का चुनाव किया जा सकता है पर हमें ध्यान रखना चाहिए श्रोताओं के अनुकूल ही विषय का चयन करें। सही विषय का चयन से कार्यक्रम उपयोग हो जाता है। मुख्य रूप से रेडियो नाटक के लिए निम्नांकित विषय लिए जा सकते हैं -
- सामाजिक
- ऐतिहासिक
- सेक्स
- राजनीतिक
- रोमांचक
- हास्य
- चुप्पी
- क्रमागत लोप (फेडिंग)
- प्रवक्ता
- ध्वनि प्रभाव
- संगीत और
- प्रतिध्वनि, अनुगूंज (इकोज)
5. पात्र - नाटक में पात्रों का बड़ा महत्व है। इसलिए पात्रों के निर्माण एवं प्रसूति के लिए रेडियो नाटक लेखक को, अत्यंत सावधान रहना चाहिए। जहां तक हो सके कम पात्र रखे जाएं। रेडियो नाटक में केवल आवाज का ही महत्व है अतः अधिक पात्र एक साथ उपस्थित न किए जाएं तो अच्छा है।
साथ ही पात्रों के व्यक्तित्व को शब्दों द्वारा उखाड़ना चाहिए, क्योंकि यह वीडियो नाटक है जिसमें शब्द और ध्वनि का महत्व है। शब्द के बिना रेडियो नाटक की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अतः टाइपचरित्रों के अनुकूल भाषा दी जाए। उसे वास्तविक जीवन के अनुरूप बनाने की चेष्टा की जाए।
प्रमुख पात्र लगातार और अधिक देर तक वे बोलते हैं। बीच-बीच में छोटे और सहायक पात्रों को लेकर एकरस्ता तोड़ी जाए और कथा में गति दी जाए।
6. संवाद - संवाद ही रेडियो नाटक है। संवाद के अतिरिक्त रेडियो नाटक में ध्वनि और संगीत भी सहायता करते हैं किंतु संवाद के बिना रेडियो नाटक प्राण हीन हो जाता है। संवाद में चुप्पी, कसाव, तेजी, तीखापन आदि होना चाहिए। इसलिए संवाद में तीन शब्द रखने योग्य हैं - 1. संक्षिप्त, 2. सरल, 3. साफ। इन तीनों शब्दों का पालन करने से संवाद महत्वपूर्ण बन जाता है।
रेडियो नाटक में रंगमंच पर प्रस्तुत होने वाले नाटकों की भांति पात्र सामने नहीं रहते हैं अदृश्य रहते हैं इसलिए संवाद इतना जीवंत और प्रभावी हो कि वह पात्रों को पूरी तरह उपस्थित कर सकें।
पात्रों के आने जाने की सूचना भी संवादों के द्वारा ही दी जानी चाहिए। जैसे कोई पात्र जो पहले से मौजूद है, एक आने वाले पात्र के बारे में कहना- यह लो कौन भीम आ रहा है, भीम कहने से आगंतुक का एक नक्शा को उभर जाता है।
इसी प्रकार आने जाने की गतिविधि का विवरण भी संवादों द्वारा ही दी जाए।
हर संवाद वातावरण और घटनानुक्रम के अनुसार लिखे जाएं। संवेदना के क्षण में छोटे-छोटे वाक्य और कम शब्दों में बोलना चाहिए।
प्रत्येक वाक्य, प्रत्येक शब्द साफ़ और तथ्य पूर्ण होना चाहिए। "नरो वा कुंजारोवा" की स्थिति रेडियो नाटक के लिए उचित नहीं है।
प्रश्नवाचक, आश्चर्य बोधक, फुसफुसाहट कराह आदि बिल्कुल वास्तविक जैसे हो। अगर यह थोड़ा भी अस्वाभाविक हुए तो रेडियो नाटक का महत्व कम हो जाता है।
7. ध्वनि संगीत - रेडियो नाटक में संगीत और ध्वनि श्रोता को अधिक प्रभावित करते हैं। इससे भावात्मक आवेग उत्पन्न किया जाता है। ध्वनि से चित्रमयता लाने की कोशिश करनी चाहिए। मुख्य रूप से इनके प्रयोग के उद्देश्य इस प्रकार हैं -
- मानसिकता की तैयारी
- प्रवाह की रक्षा
- चित्रमयता
- वातावरण निर्माण और
- उत्सुकता की रक्षा
लेकिन एक बात हमेशा याद रखना चाहिए कि ये तमाम बातें नाटक के लिए पूरक रूप में आती हैं। जैसे - किसी खूबसूरत लड़की के शरीर पर गहने। अतः उसकी एक सीमा होनी चाहिए। सीमा से आगे जाने पर हास्यास्पद स्थिति पैदा हो जाती है।
डॉक्टर चंद्र प्रकाश मिश्र के अनुसार रेडियो नाटक लेखन के लिए उनके द्वारा कहे गए निम्नलिखित बिंदुओं पर हम संक्षेप में प्रकाश डाला चाहेंगे। वे इस प्रकार हैं-
- नाटक का बीज
- स्थापत्य और कथानक - अ) कथानक का निर्माण ब) कथानक निर्माण के बाद
- चरित्र
- दृश्य संयोजन
- आरंभ, विकास और अंत
- रेडियो नाटक के उपकरण - अ) भाषा ब) संवाद स) नैरेशन द) ध्वनि प्रभाव इ) संगीत उ) उद्देश्य
1. नाटक का बीज - सैमुएल सेल्डन के अनुसार नाटक के पांच प्रमुख स्रोत हैं - कोई मूड या मनोदशा कोई सत्य, कोई स्थिति, कोई कहानी और चरित्र ये सब नाटक की विषय हो सकते हैं।
नाटक का बीज कहीं से भी प्राप्त किया जा सकता है अध्ययन से अनुभव से, समाज से, आसपास के जीवन से आदि, किंतु उनको हूबहू उतार देने से नाटक नहीं बनता उसे काट-छांट कर, तराश कर उसमें जोड़ घटाकर नाटक बनाना पड़ता है।
2. स्थापत्य और कथानक - रेडियो नाटक में दृश्य तत्व नहीं होता अतः उसका कथानक अधिक सरल होता है। आधे घंटे का रेडियो नाटक आदर्श माना जाता है। उसके अंको का सवाल नहीं है। एक दृश्य भी रह सकता है और अनेक दृश्य भी।
संकरलनत्रय के बंधन से मुक्त होता है। विषय चाहे कैसा भी हो किंतु उसका प्रभान्विति बनी रहे।
3. चरित्र - पात्र सजीव होने चाहिए। सजीव पात्र विश्वसनीय होते हैं किंतु यह तभी संभव है जब पात्र के कार्यों संवादों, संवेगों आदि में सामंजस्य बना रहे।
4. दृश्य संयोजन - रेडियो नाटक में दृश्यों की संख्या का कोई बंधन नहीं है। नाटक में एक दृश्य भी हो सकता है और अनेक दृश्य भी हो सकते हैं। दृश्य छोटे भी हो सकते हैं और बड़े भी। किसी दृश्य में 10 सेकंड लग सकते हैं और किसी में 5 मिनट। यह सब नाटक के प्रयोजन और कथावस्तु के द्वारा निर्दिष्ट होते हैं।
5. आरंभ विकास और अंत - रेडियो नाटक का प्रारंभ संगीत से होता है। संगीत कैसा हो इसका चुनाव करना प्रोड्यूसर का काम है। उसके बाद नाटक का प्रारंभ पात्रों की किसी बेचैनी, विवशता या मनोवैज्ञानिक कारणों के आधार पर करना चाहिए। ऐसे प्रारंभ से नाटक के कार्य व्यापारों के विकास को स्वतः दिशा मिलती जाती है। नाटक का अंत नाटककार से बड़ी सूझबूझ की अपेक्षा रखता है।
6. रेडियो नाटक के उपकरण - रेडियो नाटक के उपकरण, भाषा, संवाद, नैरेशन ध्वनि प्रभाव, संगीत और उद्देश्य हैं। इसकी चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। जहां तक रेडियो नाटक के उद्देश्य का प्रश्न है - रेडियो नाटक का उद्देश्य मनोरंजन के साथ-साथ मनुष्य के आंतरिक जीवन को चित्रित करना है।
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