भ्रमर गीत सार : सूरदास के पद 81 से 90 तक

भ्रमरगीत सार - सूरदास

 - सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल

पद संख्या - 81 से 90

यहां इस पोस्ट में हमने लिखा है, एम.ए. हिंदी साहित्य के सिलेबस में दिए गए भ्र्मर गीत सार के पद को जो की पद क्रमांक 1 से 10 तक है और यहां पर सिर्फ इन पदों के बारे में बताया गया अगर आपको इसके व्याख्या सहित सभी पदों को पढ़ना है तो हम इसके लिए अलग से पोस्ट लिखने वाले है हमारे ब्लॉग को सब्स्क्राइब जरूर करे ताकि जब हम आपके लिए इसका सप्रसंग व्याख्या लिखें तब आपके पास जल्द ही नोटिफिकेशन पहुंच सके। bhrmar geet sar surdas ke pad

फिलहाल अभी आप इन पदों को पढ़ें और समझे तथा जिसमें कोई त्रुटि हो तो हमें अवगत कराएं आइये पढ़ना शुरू करें।


bhramar-geet-81-90
भ्रमर गीत सार
श्री कृष्ण का वचन उद्धव-प्रति

81. राग मलार 
मधुकर रह्यो जोग लौं नातो। 
कहति बकत बेकाम  काज  बिनु,  होय  न  ह्याँ  ते  हातो।।
जब मिलि मिलि मधुपान कियो हो तब तू कह धौं कहाँ तो।
तू आयो निर्गुन उपदेसन सो नहिं हमैं सुहातो।।
काँचे गुन लै तनु ज्यों बेधौ ; लै बारिज को ताँतो। 
मेरे जान गह्यो चाहत हौ फेरि कै मंगल मातो।।
यह लै देहु सुर के प्रभु को आयो जोग जहाँ तो। 
जब चहिहैं तब माँगि पठैहैं जो कोउ आवत-जातो।।

82. राग नट 
मोहन माँग्यों अपनो रूप। 
या  व्रज बसत अँचै तुम बैठीं, ता बिनु यहाँ निरुप।।
मेरो मन, मेरो अली ! लोचन लै जो गए धुपधूप। 
हमसों बदलो लेन उठि धाए मनो धारि कर सूप।।
अपनो काज सँवारि सूर , सुनु हमहिं बतावत कूप। 
लेवा-देइ बरावर में है , कौन रंक को भूप।।

83. 
हरी सों भलो सो पति सीता को।
वन बन खोजत फिरे बंधु-संग किया सिंधु बीता को।।
रावन मारयो , लंका जारी, मुख देख्यो भीता को।
दूत हाथ उन्हैं लिखि न पठायो निगम-ज्ञान गीता को।।
अब धौं कहा परेखो कीजै कुब्जा के माता को।
जैसे चढ़त सबै सुधि भूली, ज्यों पीता चीता को ?
कीन्हीं कृपा जोग लिखि पठयो, निरख पत्र री ! ताको।
सूरदास प्रेम कह जानै लोभी नवनीता को।।

* इन्हें देखें :- भ्रमर गीत सार : सूरदास पद क्रमांक 83 सप्रसंग व्याख्या By Khilawan

84. राग सोरठ
निरमोहिया सों प्रीति कीन्हीं काहे न दुख होय ?
कपट करि-करि प्रीति कपटी लै गयो मन गोय।।
काल मुख तें काढ़ि आनी बहुरि दीन्हीं ढोय।
मेरे जिय की सोई जानै जाहि बीती होय।।
सोच, आँखि मँजीठ कीन्हीं निपट काँची पोय।
सूर गोपी मधुप आगे दरिक दीन्हों रोय।

* इन्हें देखें :- भ्रमर गीत सार : सूरदास पद क्रमांक 84 सप्रसंग व्याख्या By Khilawan

85. राग सारंग
बिन गोपाल बैरनि भई कुंजै।
तब ये लता लगति अति सीतल , अब भई विषम ज्वाल की पुंजै।।
बृथा बहति जमुना, खग बोलत, बृथा कमल फूलैं, अलि गुंजै।
पवन पानि घनसार संजीवनि दधिसुत किरन भानु भई भुंजै।।
ए , ऊधो , कहियो माधव सों बिरह कदन करि मारत लुंजै।
सूरदास प्रभु को मग जोवत आँखियाँ भई बरन ज्यों गुंजैं।

* इन्हें देखें :- भ्रमर गीत सार : सूरदास पद क्रमांक 85 सप्रसंग व्याख्या By Khilawan

86. राग नट
सँदेसो कैसे कै अब कहौं ?
इन नैनन्ह तन को पहरो कब लौं देति रहौं ?
जो कछु बिचार होय उर -अंतर रचि पचि सोचि गहौं।
मुख आनत ऊधौं-तन चितवन न सो विचार, न हौं।।
अब सोई सिख देहु, सयानी ! जातें सखहिं लहौं।
सूरदास प्रभु के सेवक सों बिनती कै निबहौं।।

* इन्हें देखें :- भ्रमर गीत सार : सूरदास पद क्रमांक 86 सप्रसंग व्याख्या By Khilawan

87. राग कान्हरो
बहुरो ब्रज यह बात न चाली।
वह जो एक बार ऊधो कर कमलनयन पाती दै घाली।।
पथिक ! तिहारे पा लगति हौं मथुरा जाब जहां बनमाली।
करियो प्रगट पुकार द्वार ह्वै 'कालिंदी फिरि आयो काली'।।
जबै कृपा जदुनाथ कि हम पै रही, सुरुचि जो प्रीति प्रतिपाली।
मांगत कुसुम देखि द्रुम ऊँचे, गोद पकरि लेते गहि डाली।।
हम ऐसी उनके केतिक हैं अग-प्रसंग सुनहु री, आली !
सूरदास प्रभु रीति पुरातन सुमिरि राधा-उर साली।।

* इन्हें देखें :- भ्रमर गीत सार : सूरदास पद क्रमांक 87 सप्रसंग व्याख्या By Khilawan

88. राग गौरी
ऊधो ! क्यों राखौं ये नैन ?
 सुमिरि सुमिरि गुन अधिक तपत हैं सुनत तिहारो बैन।।
हैं जो मन हर बदनचंद के सादर कुमुद चकोर।
परम-तृषारत सजल स्यामघन के जो चातक मोर।
मधुप मराल चरनपंकज के, गति-बिसाल-जल मीन।
चक्रबाक, मनिदुति दिनकर के मृग मुरली आधीन।।
सकल लोक सूनी लागतु है बिन देखे वा रूप।
सूरदास प्रभु नंदनंदन के नखसिख अंग अनूप।।

* इन्हें देखें :- भ्रमर गीत सार : सूरदास पद क्रमांक 88 सप्रसंग व्याख्या By Khilawan

89. राग मलार
सँदेसनि मधुबन-कूप भरे।
जो कोउ पथिक गए हैं ह्याँ तें फिरि नहिं अवन करे।।
कै वै स्याम सिखाय समोधे कै वै बीच मरे ?
अपने नहिं पठवत नंदनंदन हमरेउ फेरि धरे।।
मसि खूँटी कागद जल भींजे, सर दव लागि जरे।
पाती लिखैं कहो क्यों करि जो पलक-कपाट अरे ?

* इन्हें देखें :- भ्रमर गीत सार : सूरदास पद क्रमांक 89 सप्रसंग व्याख्या By Khilawan

90. राग नट
नंदनंदन मोहन सों मधुकर ! है काहे की प्रीति ?
जौ कीजै तौ है जल, रवि औ जलधर की सी रीति।।
जैसे मीन, कमल, चातक, को ऐसे ही गई बीति।
तलफत, जरत, पुकारत सुनु, सठ ! नाहिं न है यह रीति।।
मन हठि परे, कबंध जुध्द ज्यों, हारेहू भइ जीति।
बँधत न प्रेम-समुद्र सूर बल कहुँ बारुहि की भीति।।


भ्र्मर गीत सार के अन्य सभी पदों के लिंक इस प्रकार है जिन्हें आप पढ़ सकते हैं जो की पंडित रविशंकर शुक्ल यूनिवर्सिटी के एम. ए. हिंदी साहित्य के द्वितीय सेमेस्टर के सिलेबस में दिया गया है।

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