भ्रमरगीत सार : सूरदास पद क्रमांक 82 सप्रसंग व्याख्या By Khilawan

भ्रमरगीत सार आचार्य रामचंद्र शुक्ल 

अगर आप हमारे ब्लॉग को पहली बार विजिट कर रहे हैं तो आपको बता दूँ की इससे पहले हमने भ्रमर गीत के पद क्रमांक 81 की व्याख्या को अपने इस ब्लॉग questionfieldhindi.blogspot.com में पब्लिस किया था। आज हम भ्रमर गीत पद क्रमांक 82 की सप्रसंग व्याख्या के बारे में जानेंगे तो चलीये शुरू करते हैं।

भ्रमरगीत सार की व्याख्या

  पद क्रमांक 82 व्याख्या 

- सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल

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82. राग नट 
मोहन माँग्यों अपनो रूप। 
या  व्रज बसत अँचै तुम बैठीं, ता बिनु यहाँ निरुप।।
मेरो मन, मेरो अली ! लोचन लै जो गए धुपधूप। 
हमसों बदलो लेन उठि धाए मनो धारि कर सूप।।
अपनो काज सँवारि सूर , सुनु हमहिं बतावत कूप। 
लेवा-देइ बरावर में है , कौन रंक को भूप।।

शब्दार्थ - मांग्यो = माँगा है। बसत = रहते हुए। अँचै = पी गई हो। निरुप = निराकार या रूपहीन। धूपधुप = स्वच्छ या निमूल। सूप = फटकने का आधार। सँवारि = संभाल कर। बतावत कूप = कुँआ बतला रहे हो। भाव यह है मरने का रास्ता बतला रहे हो। रंक = गरीब या निर्धन। लेवा-देई = लेना-देन। 

संदर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हिंदी साहित्य के भ्रमरगीत सार से लिया गया है जिसके सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं। 

प्रसंग - उद्धव का विशेष आग्रह निर्गुणोपासना की ओर था। गोपियाँ उसी आग्रह को समझती हुई  कह रही हैं सखियों समझ लो। 

व्याख्या - गोपियाँ कह रहीं हैं की सखियाँ समझ लो। उद्धव जी यहां निराकार की शिक्षा देने विशेष कारण से आये हैं। कृष्ण ने अपने रूप सौंदर्य को वापस माँगा है उस रूप को जिसे तुमने इस ब्रज में रहकर पी लिया है। 

तुम्हारे द्वारा रूप-पान कर लेने के कारण ही कृष्ण अब निरुप हो गए हैं। उसी निरूपता को साकार करने के लिए उन्होंने यह योग का उपदेश भेजा है। 

सखी की इस बात को सुनकर राधा कहती है कि हे सखी ! क्या तुम्हे पता नही है कि कृष्ण मेरा धुला-धुलाया रूप-विशुद्ध मन स्वयं चुराकर ले गए हैं। देखो तो सही कितना अन्याय है की वे हमारे रूप को तो वापस नही करते और ऊपर से उल्टे योग की शिक्षा दे दी है। 

ये उद्धव हैं कि हाथ में सूप लेकर हमसे बदला लेने के लिए यहां आये हैं अर्थात अच्छी तरह से जांच-पड़ताल करके अपने लाभ की वस्तु को वापस लेना चाहते हैं। इस प्रकार से अपना काम तो सँवारना चाहते हैं किन्तु हमें कुँए में धकेल रहे हैं। 

सूरदास कहते हैं कि राधा ने कहा कि लेन-देन करने में सब बराबर होते हैं- कोई छोटा बड़ा नहीं होता है। राजा और रंक का कोई भी भेद यहाँ लेन-देन के मामले में नहीं चलता है। 

कृष्ण राजा है फिर भी अन्याय के पक्षधर क्यों बने हुए हैं? अपनी वस्तु को तो मांग रहे हैं किन्तु हमारी वस्तु को वापस ही नहीं करना चाहते हैं। 

भाव यह है कि यदि कृष्ण अपना रूप मांगते हैं तो हमारा वह मन भी तो लौटा दें जिसे वे यहां से चुराकर ले गए हैं। 

विशेष -

  1. इस पद में विनिमय अलंकार का प्रयोग बड़ी सुंदर रीति से किया गया है। 
  2. 'गर्व' संचारी का प्रयोग भी आकर्षक है। 
  3. 'हेतूत्प्रेक्षा' भी बड़ी आकर्षक बन सकी है। 
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