अगर आप हमारे ब्लॉग को पहली बार विजिट कर रहे हैं तो आपको बता दूँ की इससे पहले हमने भ्रमर गीत के पद क्रमांक 70 की व्याख्या को अपने इस ब्लॉग questionfieldhindi.blogspot.com में पब्लिस किया था। आज हम भ्रमर गीत पद क्रमांक 81 की सप्रसंग व्याख्या के बारे में जानेंगे तो चलीये शुरू करते हैं।
भ्रमरगीत सार की व्याख्या
पद क्रमांक 81 व्याख्या
मधुकर रह्यो जोग लौं नातो।
कहति बकत बेकाम काज बिनु, होय न ह्याँ ते हातो।।
जब मिलि मिलि मधुपान कियो हो तब तू कह धौं कहाँ तो।
तू आयो निर्गुन उपदेसन सो नहिं हमैं सुहातो।।
काँचे गुन लै तनु ज्यों बेधौ ; लै बारिज को ताँतो।
मेरे जान गह्यो चाहत हौ फेरि कै मंगल मातो।।
यह लै देहु सुर के प्रभु को आयो जोग जहाँ तो।
जब चहिहैं तब माँगि पठैहैं जो कोउ आवत-जातो।।
शब्दार्थ: लौं = तक। कतहि = क्यों। बेकाम = बिना काम के। हा तो = दूर या अलग। कहि धौं = कह तो सही। सुहातो = सुहाता या अच्छा नहीं लगता है। गुन = रस्सी-गुण। वारिज = कमल। तातो = तन्तु। मैगल = हाथी। मातो = मदमस्त। आवत-जातो = आता जाता हुआ व्यक्ति।
सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश या पद हिंदी साहित्य के भ्रमरगीत सार से लिया गया है। जिसके सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी है।
प्रसंग: गोपियाँ उद्धव के ज्ञान-योग के उपदेश को बार-बार सुनकर परेशान हो रही हैं। अतः वे उद्धव से झल्लाती हुई कह रही हैं -
व्याख्या: गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं - हे भ्रमर! यदि यह सही भी ही कि कृष्ण ने ही हमारे लिए यह संदेशा भेजा है तो भी क्या यह सही है कि तुम्हारा सम्बन्ध योग तक ही सीमित है।
हमें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तुम बिना काम के ही बाते बना रहे हो और हमारे बार-बार कहने पर भी यहां से दूर नहीं भाग जाते हो?
हमने कृष्ण के साथ मधुपान किया है अनेक प्रकार से रसपान किया है। जब हम इस रसपान में संलग्न थीं तब तुम कहाँ थे।उस समय हमें इस मार्ग से दूर करने के लिए क्यों नहीं आये थे।
हे उद्धव जी तुम यहाँ हमें निर्गुण का उपदेश देने क्यों आये हो? यह तुम्हारा उपदेश हमें नहीं अच्छा लगता है। अतः तेरे द्वारा हमसे अपने निर्गुण उपदेश को स्वीकार करवा लेना उसी प्रकार असम्भव है, जैसे कोई कच्चा धागा लेकर शरीर को बेधने का प्रयास करे।
कच्चा धागा कमजोर होने के कारण शीघ्र ही टूट जाता है। उसका शरीर में प्रवेश कराना असम्भव है। हमें तुम्हारा यह प्रयत्न वैसा ही प्रतीत होता है जैसे कोई कमल के कोमल तन्तुओं द्वारा मदमस्त हाथी को बाँधकर उसे वशीभूत करने का प्रयत्न कर रहा हो।
अतः हे उद्धव जी तुम कृपया यह करो कि इस योग को वहीं ले जाओ जहाँ से इसे लेकर आये हो। कारण वे ही इसका सही उपयोग जानते हैं। हमें फिलहाल तो इसकी आवश्यकता नहीं है; जब भी कभी होगी तो किसी आते जाते के हाथों मंगा लेते।
विशेष: अंतिम पंक्ति की ध्वनि यह है कि उद्धव जी किसी भी प्रकार हमारा पीछा तो छोड़ो। 'उपमा' और 'निदर्शना' अलंकार का सही प्रयोग इस पद में किया गया है।
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