भ्रमरगीत सार : सूरदास पद क्रमांक 84 सप्रसंग व्याख्या By Khilawan

भ्रमरगीत सार आचार्य रामचंद्र शुक्ल 

अगर आप हमारे ब्लॉग को पहली बार विजिट कर रहे हैं तो आपको बता दूँ की इससे पहले हमने भ्रमर गीत के पद क्रमांक 83 की व्याख्या को अपने इस ब्लॉग questionfieldhindi.blogspot.com में पब्लिस किया था। आज हम भ्रमर गीत पद क्रमांक 84 की सप्रसंग व्याख्या के बारे में जानेंगे तो चलीये शुरू करते हैं।

भ्रमरगीत सार की व्याख्या

  पद क्रमांक 84 व्याख्या 

सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल

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84. राग सोरठ

निरमोहिया सों प्रीति कीन्हीं काहे न दुख होय ?
कपट करि-करि प्रीति कपटी लै गयो मन गोय।।
काल मुख तें काढ़ि आनी बहुरि दीन्हीं ढोय।
मेरे जिय की सोई जानै जाहि बीती होय।।
सोच, आँखि मँजीठ कीन्हीं निपट काँची पोय।
सूर गोपी मधुप आगे दरिक दीन्हों रोय।

शब्दार्थ - निर्मोहियो = निर्मोही। काहे न = क्यों नहीं प्रीति = प्रेम। मनगोय = मन को छिपाकर या चुराकर। काल = समय, मृत्यु। ढोय = धकेल दिया। बहुरि = फ़ीरी। मंजीठ = लाल। पोय = रोटी बनाना। दरकि  = टूटकर। शुक्ल जी के शब्दों में फुट-फुटकर। 

संदर्भ - प्रस्तुत पद्यांश  हमारे हिंदी साहित्य के भ्रमरगीत सार से लिया गया है जिसके संपादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं।

प्रसंग - गोपियां प्रेम-योगिनियां सभी कुछ सहन कर सकती हैं केवल अपने प्रिय की उपेक्षा उन्हें सहय नहीं है वह सोचती हैं कि हर क्षण उपेक्षा सहन करना कठिन है। गोपियों को इस बात का भी दुख है कि उन्होंने कृष्ण जैसे निर्मोही और कलुष हृदय वाले से प्रेम किया ही क्यों यदि ऐसा ना हो तो फिर परेशानी काहे की थी। इस प्रसंग में वे कह रहे हैं।

 व्याख्या - निर्मोही व्यक्ति से प्रेम करने का परिणाम दुख के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? अर्थात वह तो भोगना ही पड़ता है। 

कृष्णा तो इतने स्वार्थी और कपटी निकले कि पूरे छल और चातुर्य से उन्होंने हमसे प्रीति बढ़ाएं और उसी थोथी प्रीति के बहाने मन को चुराकर चलता बना।

एक बार भी तो हम उसकी बातों में आ गई और हमें ऐसा प्रतीत हुआ मानो उसने हमें काल के मुख से निकाल लिया हो, परंतु आज उद्धव के माध्यम से आज योग की शिक्षा दिलाकर हमारी समस्त आशाओं पर पानी फेर दिया है।

अब ऐसा प्रतीत हो रहा है मानों वे हमें मौत के मुंह में धकेल रहे हैं। अतः आज उनके व्यवहार से हृदय की जो वेदना हुई है वह अनिर्वचनीय है। उस पीड़ा को तो वही जान सकता है जो भुक्तभोगी हो, जिसने प्रेममार्ग की पीड़ाओं को भोगा हो।

गोपी कह रहे हैं कि मैं तो व्यर्थ ही उनकी कच्ची प्रीति के कारण रो-रोकर अपनी आंखों को फोड़ती रही।

सूरदास कहते हैं कि इन पश्चाताप की बातों को कहते हुए गोपी विशेष या राधा दहाड़ मारकर रो पड़ी। 

पांचवी पंक्ति बड़ी सार्थक है - हमें अफसोस तो इस बात का है कि हमने उनके पूर्णतः कच्चे प्रेम को ही पक्का प्रेम समझ लिया था उनके वियोग में आंखों को रो-रोकर मजिस्ठ के लाल रंग के समान कर लिया था ठीक वैसे ही जैसे कच्ची गीली लकड़ियों को फूंक-फूंक कर अपनी आंखों को धूएँ से लाल कर कोई रोटी बनाने का प्रयत्न करें। " 

इतना कहकर गोपियां निर्ममता से व्यथित होती हुई रो पडी।

 विशेष - 1. पहली और पांचवी पंक्ति में लोकोक्ति का मधुर और सार्थक प्रयोग है। चौथी पंक्ति का भाव मीरा की इस पंक्ति से मिलाकर पढ़ा जा सकता है -

 घायल की गति घायल जानै,
 कै जिणि लाई होय।।

2. गोपियों की वेदना साकार हो उठी है और उनका उपालंभ भी बड़ा तीखा और सार्थक है। गोपियों की असहाय और अवश स्थिति का चित्रांकन किया गया है। 

 

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