भ्रमरगीत सार - सूरदास
- सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल
पद संख्या - 1 से 10
यहां इस पोस्ट में हमने लिखा है। M.A. हिंदी साहित्य के सिलेबस में दिए गए भ्रमर गीत सार के पद क्रमांक 1 से 10 तक है। और नीचे लिंक दिया गया है जिसमे उसके व्याख्या है। bhrmar geet sar surdas ke pad
फिलहाल अभी आप इन पदों को पढ़ें और समझे तथा जिसमें कोई त्रुटि हो तो हमें अवगत कराएं आइये पढ़ना शुरू करें।
भ्रमर गीत सार पद 1 से 10 |
श्री कृष्ण का वचन उद्धव-प्रति
पहिले करि परनाम नंद सो समाचार सब दीजो।
औ वहां वृषभानु गोप सो जाय सकल सुधि लीजो।।
श्रीदाम आदिक सब ग्वालन मेरे हुतो भेंटियो।
सुख-सन्देस सुनाय हमारी गोपिन को दुख मेटियो।।
मंत्री एक बन बसत हमारो ताहि मिले सचु पाइयो।
सावधान है मेरे हुतो ताही माथ नावाइयो।।
सुंदर परम् किसोर बयक्रम चंचल नयन बिसाल।
कर मुरली सिर मोरपंख पीताम्बर उस बनमाल।।
जनि डरियो तुम सघन बनन में ब्रजदेवी रखवार।
वृंदावन सो बसत निरन्तर कबहूँ न होत नियार।।
उध्दव प्रति सब कहीं स्यामजू अपने मन की प्रीति।
सुन्दरदास किरण करि पठए यहै सफल ब्रजरीति।।
व्याख्या : भ्रमर-गीत-सार पद 1 की संदर्भ व्याख्या
2. राग सोरठ
कहियो नंद कठोर भए।
हम दोउ बीरै डारि पर घरै मानो थाती सौंपि गए।।
तनक-तनक तैं पालि बड़े किए बहुतै सुख दिखराए।
गोचारन को चलत हमारे पीछै कोसक धाए।।
ये बसुदेव देवकी हमसों कहत आपने जाए।
बहुरि बिधाता जसुमतिजू के हमहिं न गोद खिलाए।।
कौन काज यह राज, नगर को सब सुख सों सुख पाए ?
सूरदास ब्रज समाधान करूं आंजू काल्हि हम आए।।
व्याख्या भ्रमर गीत सार 2 सप्रसंग व्याख्या
3. राग बिलावल
तबहिं उपंगसुत आय गए।
सखा सखा कछु अंतर नाही भरि-भरि अंक लए।।
अति सुंदर तन स्याम सरीखो देखत हरि पछताने।
एसे को वैसी बुधि होती ब्रज पठवै तब आने।।
या आगे रस-काव्य प्रकासे जोग-वचन प्रगटावै।
सुर ज्ञान दृढ़ याके हिरदय जुवतिन जोग सिखावै।।
व्याख्या - पद क्रमांक 3 भ्रमर गीत सार
हरि गोकुल की प्रीति चलाई।
सुनहु उपंगसुत मोहिं न बिसरत ब्रजवासी सुखदाई।।
यह चित होत जाऊँ मैं, अबही, यहाँ नहीं मन लागत।
गोप सुग्वाल गाय बन चारत अति दुख पायो त्यागत।।
कहँ माखन-चोरी? कह जसुमति 'पूत जेब' करि प्रेम।
सूर स्याम के बचन सहित सुनि व्यापत अपन नेम।।
व्याख्या - पद क्रमांक 4 भ्रमर गीत सार व्याख्या
5. राग रामकली
जदुपति लख्यो तेहि मुसकात।
कहत हम मन रही जोई सोइ भई यह बात।।
बचन परगट करन लागे प्रेम-कथा चलाय।
सुनहु उध्दव मोहिं ब्रज की सुधि नहीं बिसराय।।
रैनि सोवत, चलत, जागत लगत नहिं मन आन।
नंद जसुमति नारि नर ब्रज जहाँ मेरो प्रान।।
कहत हरि सुनि उपंगसुत ! यह कहत हो रसरीति।
सूर चित तें टरति नाही राधिका की प्रीति।।
6. राग सारंग
सखा? सुनों मेरी इक बात।
वह लतागन संग गोरिन सुधि करत पछितात।।
कहाँ वह वृषभानु तन या परम् सुंदर गात।
सरति आए रासरस की अधिक जिय अकुलात।।
सदा हित यह रहत नाहीं सकल मिथ्या-जात।
सूर प्रभू यह सुनौ मोसों एक ही सों नात।।
7. राग टोड़ी
उध्दव ! यह मन निश्चय जानो।
मन क्रम बच मैं तुम्हें पठावत ब्रज को तुरत पलानों।।
पूरन ब्रम्ह, सकल अबिनासी ताके तुम हौ ज्ञाता।
रेख न रूप, जाति, कुल नाहीं जाके नहिं पितु माता।।
यह मत दै गोपिन कहँ आवहु बिनह-नदी में भासति।
सूर तुरत यह जसस्य कहौ तुम ब्रम्ह बिना नहिं आसति।।
व्याख्या - भ्रमर गीत सार : सूरदास पद 7 व्याख्या
8. राग नट
उद्धव ! बेगि ही ब्रज जाहु।
सुरति सँदेस सुनाय मेटो बल्लभिन को दाहु।।
काम पावक तूलमय तन बिरह-स्वास समीर।
भसम नाहिं न होन पावत लोचनन के नीर।।
अजौ लौ यहि भाँति ह्वै है कछुक सजग सरीर।
इते पर बिनु समाधाने क्यों धरैं तिय धीर।।
कहौं कहा बनाय तुमसों सखा साधु प्रबीन?
सुर सुमति बिचारिए क्यों जियै जब बिनु मीन।।
व्याख्या - भ्रमर गीत सार : सूरदास पद 8 व्याख्या
9. राग सारंग
पथिक ! संदेसों कहियो जाय।
आवैंगे हम दोनों भैया, मैया जनि अकुलाय।।
याको बिलग बहुत हम मान्यो जो कहि पठयो धाय।
कहँ लौं कीर्ति मानिए तुम्हारी बड़ो कियो पय प्याय।।
कहियो जाय नंदबाबा सों, अरु गहि जकरयो पाय।
दोऊ दुखी होन नहिं पावहि धूमरि धौरी गाय।।
यद्धपि मथुरा बिभव बहुत है तुम बिनु कछु न सुहाय।
सूरदास ब्रजवासी लोगनि भेंटत हृदय जुड़ाय।।
व्याख्या - भ्रमर गीत सार पद 9 व्याख्या
10.
नीके रहियो जसुमति मैया।
आवैंगे दिन चारि पांच में हम हलधर दोउ भैया।।
जा दिन तें हम तुमतें बिछुरे काहु न कहयों 'कन्हैया'।
कबहुँ प्रात न कियो कलेवा, साँझ न पीन्ही धैया।।
बंसी बेनु संभारि राखियो और अबेर सबेरो।
मति लै जाय चुराय राधिका कछुक खिलौनों मेरो।
कहियो जाय नंदबाबा सों निष्ट बिठुर जिय कीन्हों।
सूर स्याम पहुँचाय मधुपुरी बहुरि सँदेस न लीन्हों।।
व्याख्या - भ्रमर गीत सार पद 10 व्याख्या
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