Bhramar Geet Saar Ki Vyakhya
भ्रमरगीत सार की व्याख्या
सूरदास भ्रमरगीत
राग सारंग पद 52
हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन बच क्रम नंदनंदन सो उर यह दृढ़ करि पकरी।।
जागत, सोबत, सपने सौंतुख कान्ह-कान्ह जक री।
सुनतहि जोग लगत ऐसो अलि! ज्यों करूई ककरी।।
सोई व्याधि हमें लै आए देखी सुनी न करी।
यह तौ सूर तिन्हैं लै दीजै जिनके मन चकरी।।52।।
शब्दार्थ : हारिल की लकरी=हारिल नामक पक्षी सदैव अपने पंजों में कोई न कोई लकड़ी का टुकड़ा या तिनका पकड़े रहता है। बच=वचन। क्रम=कर्म। उर=हृदय। सौंतुख=प्रत्यक्ष। कान्ह=कन्हैया, कृष्ण। जकरी=रट, धुन। करुई=कड़वी। सोई=वही। व्याधि=रोग, बीमारी। तिन्हैं=उनको। चकरी=चंचल चकई के समान सदैव अस्थिर रहने वाली।
संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हमारे हिंदी साहित्य के भ्रमर गीत से लिया गया है जिसका सम्पादन आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किया है भ्रमर गीत सार के नाम से किया है।
प्रसंग : प्रस्तुत पद में गोपियाँ उद्धव को कह रही हैं कि कृष्ण उनके लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान बन गए हैं।
व्याख्या : जिस प्रकार हारिल पक्षी कहीं भी हो वो किसी भी दशा में हो वह सहारे के लिए अपने पंजे में किसी न किसी लकड़ी को अथवा किसी तिनके को पकड़े रहता है उसी प्रकार हम गोपियाँ श्री कृष्ण के ध्यान में निमग्न रहती हैं।
हमने अपने मन, वचन और कर्म से श्री कृष्ण रूपी लकड़ी को अपने हृदय में दृढ़ करके पकड़ लिया है अर्थात श्री कृष्ण का रूप सौंदर्य हमारे हृदय में गहराई तक बैठ गया है और यह अब जीवन का एक अंग बन गया है।
हमारा मन तो जागते-सोते स्वप्न अवस्था में प्रत्यक्ष रूप में अर्थात सभी दशाओं में कृष्ण की नाम की रट लगाता रहता है। श्री कृष्ण का स्मरण ही एक मात्र कार्य रह गया है हमारे लिए जिसे हमारा मन सभी अवस्थाओं में करता है। हे भ्रमर तुम्हारे निर्गुण ब्रम्ह संबंधी ज्ञान उपदेश की बातें सुनकर हमें ऐसे लगता है जैसे कोई कड़वी ककड़ी हमने मुंह में रख ली हो।
गोपियाँ कहती हैं हे उद्धव इस निर्गुण ब्रम्ह के रूप में तुम हमारे लिए ऐसा रोग ले आये हो जिसे न तो हमने कभी देखा है न सुना है न कभी उसका भोग किया है इसीलिए इस योग ज्ञान रूपी बीमारी को तुम उन लोगों को दो जिनका मन चकरी के समान अथवा चकरी के समान सदैव चंचल रहते हैं। वे इसका आदर करेंगे। गोपियाँ कहना हैं की उनका हृदय तो कृष्ण प्रेम में दृढ एवं स्थिर है उनके हृदय में योग ज्ञान और निर्गुण ब्रम्ह संबंधी बातों के लिए कोई स्थान नही उद्धव के योग बातें वहीं लोग स्वीकार कर सकते हैं जो अपनी आस्था में दृढ नही होते भावावेश में अपनी आस्था और विशवास को बदलते रहते हैं और इसीलिए ऐसे अस्थिर चित्त वालों के लिए ही योग का उपदेश उचित है।
- गोपियाँ निर्गुण के उपदेश के लिए व्याधी शब्द का प्रयोग करती हैं। और ऐसा करके सूरदास जी ने उन्हें परोक्ष रूप से स्वयं निर्गुण ब्रम्ह की अवहेलना की है और साथ ही साथ यह स्पष्ट किया है की योग साधना चंचल व अस्थिर चित्त वालों के लिए ही उचित है स्थिर प्रेममार्गियों के लिए यह व्यर्थ है।
- सुनतहि जोग लगत ऐसो अलि! ज्यों करुई ककरी में उपमा अलंकार।
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