Bhramar Geet Saar Ki Vyakhya
भ्रमरगीत सार की व्याख्या
याकी सीख सुनै ब्रज को, रे ?
जाकी रहनि कहनि अनमिल, अलि, कहत समुझि अति थोरे।।
हमसों कहत बिरस समझौ, है गगन कूप खनि खोरे।।
घान को गाँव पयार ते जानौ ज्ञान विषयरस भोरे।
सूर दो बहुत कहे न रहै रस गूलर को फल फोरे।।
शब्दार्थ :
संदर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हिंदी साहित्य के भ्रमरगीत सार से लिया गया है जिसके सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं। जिसे उन्होंने सूरसागर से सम्पादित किया है।
प्रसंग :
व्याख्या :
क्योकि योग सधना संबंधी निर्गुण ब्रम्ह का उपदेश यहाँ ब्रज में कौंन सुनेगा जिनके रहन सहन और व्यवहार में अर्थात कथनी और करनी में इतना विरोध रहता हो उनकी बातें यहाँ कोई भी सुनना पसंद नही करेगा।
हे उद्धव तुम स्वयं तो श्री कृष्ण के चरण कमल रूपी मकरंद रूपी अमृत में सदैव अपने हृदय को डुबोये रहते हो और हमसे कहते हो उस कृष्ण को रसीम समझो नीरस समझो खुद तो रस में लीन रहते हो और हमें कृष्ण को रसीम समझने को कहते हो उसी प्रकार असम्भव है जिस प्रकार आकाश में कुआँ खोदकर उसके जल में स्नान करने का प्रयत्न करना। धान के गाँव का परिचय उसके चारो ओर फैले पयाल भाग के पुसे से ही प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार तुम्हें देखकर हमें यही लगता है कि तुम स्वयं तो कृष्ण भक्त हो क्योंकि तुम स्वयं उनके चरणों में अनुराग रखते हो और बावले बने हुए हो और फिर क्या यह तुम्हारे लिए उचित है की हम जैसी जो विरहणी जो बालाएँ हैं। उन्हें तुम कृष्ण से विमुख होने का उपदेश देते हो।
गूलर का फल फोड़ने से जो स्थिति उतपन्न होती है वह स्थिति उतपन्न हो जाएगी और इसीलिये इस मामले में इस संबंध में हमसे अधिक बातें मत करो।
- आपुन पद मकरंद सुधारस हृदय रहत नित बोरे में ततगुण है।
- गगन कूप खनि खौरे में दर्शना अलंकार का प्रयोग हुआ है।
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