Bhramar Geet Saar Ki Vyakhya
पद क्रमांक 59 व्याख्या
भ्रमरगीत सूरदास व्याख्या
59. राग सारंग
बिलग जनि मानौ हमारी बात।
डरपति बचन कठोर कहति, मति बिनु पति यों उठि जात।।
जो कोउ कहत जरे अपने कछु फिरि पाछे पछितात।
जो प्रसाद पावत तुम ऊधो कृस्न नाम लै खात।।
मनु जु तिहारो हरिचरनन तर अचल रहत दिन-रात।
'सूर-स्याम तें जोग अधिक' केहि-केहि आयत यह बात ?।।
शब्दार्थ : विलग जनि मानौ=बुरा मत मानो। पति उठी जात=मर्यादा जाती रहती है। जरै अपने=अपना जी जलने पर। रहत=रहता है। तर=निचे।
संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हिंदी साहित्य के भ्रमरगीत सार से लिया गया है जिसके सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं जिन्होंने इन पदों को सूरसागर से लिया है।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद में गोपियाँ अपने द्वारा कहे गए कटु वचनों के लिए उद्धव से जो कह रहीं हैं उसी का वर्णन प्रस्तुत पद में है।
व्याख्या : हे उद्धव, तुम हमारी बात का बुरा मत मानना हम तुमसे कठोर वचन कहती तो हैं पर डरती हैं, हमें डर लगता है क्योंकि जो बिना बिचारे बिना विवेक के कठोर वचन कहता है उसकी पति अर्थात उसकी मर्यादा उसी प्रकार नष्ट हो जाती है।
जिस प्रकार तुम्हारी हो गई है क्योंकि तुमने कृष्ण को त्यागकर निर्गुण ब्रम्ह की उपासना करने को कहते हो।
यदि कोई स्वयं अपना जी जलने पर उटपटांग बातें कह जाय लेकिन फिर वह मन ही मन पछताता रहता है। हे उद्धव आपको जो यहाँ इतना प्रसाद मिल रहा है वह केवल कृष्ण का नाम लेने के कारण नहीं मिल रहा है अर्थात जो सम्मान आपको यहाँ पर मिल रहा है ब्रज में मिल रहा है वो इसी कारण मिल रहा है की आपने कृष्ण का नाम लिया।
आपका मन जो है वह श्री कृष्ण के चरणों में रात दिन दृंढता पूर्वक लगा रहता है और फिर भी आपने यह बात कैसे कह दी कि योग जो है आपका वह कृष्ण से श्रेष्ठ है, हे उद्धव कृष्ण भक्त होने पर भी आप ऐसी बातें कर रहें हैं क्या यह आपकी कृतघ्नता नही है।
विशेष :
- इस प्रकार गोपियाँ प्रस्तुत पद में उद्धव की कृतघ्नता और अहसान फरामोशी पर अक्क्षेप कर रही हैं।
- गंभीर दिक्य का भाव यहाँ पर गोपियों के द्वारा दर्शाया गया है।
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