Bhramar Geet Saar Ki Vyakhya
अगर आप हमारे ब्लॉग को पहली बार विजिट कर रहे हैं तो आपको बता दूँ की इससे पहले हमने भ्रमर गीत के पद क्रमांक 30 की व्याख्या को अपने इस ब्लॉग questionfieldhindi.blogspot.com में पब्लिस किया था। आज हम भ्रमर गीत पद क्रमांक 51 की सप्रसंग व्याख्या के बारे में जानेंगे तो चलीये शुरू करते हैं।
भ्रमरगीत सार की व्याख्या
पद क्रमांक 51 व्याख्या
- सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल
पद 51
राग कान्हरो अलि हो ! कैसे कहौ हरि के रूप-रसहि ?
मेरे तन में भेद बहुत बिधि रसना न जानै नयन की दसहि।।
जिन देखे तो आहि बचन बिनु जिन्हैं बजन दरसन न तिसहि।
बिन बानी भरि उमगि प्रेमजल सुमिरि वा सगुन जसहि।।
बार-बार पछितात यहै मन कहा करै जो बिधि न बसहिं।
सूरदास अंगन की यह गति को समुझावै या छपद पंसुहि।।
शब्दार्थ : दसहि=दशा। आहिं=हैं। तिसहिं=उसे। जसहि=जस को। न बसहि=वश में नहीं। षट्पद=भ्रमर। पसुहि=पशु को। तन=शरीर। रसना=जिह्वा।
राग कान्हरो अलि हो ! कैसे कहौ हरि के रूप-रसहि ?
मेरे तन में भेद बहुत बिधि रसना न जानै नयन की दसहि।।
जिन देखे तो आहि बचन बिनु जिन्हैं बजन दरसन न तिसहि।
बिन बानी भरि उमगि प्रेमजल सुमिरि वा सगुन जसहि।।
बार-बार पछितात यहै मन कहा करै जो बिधि न बसहिं।
सूरदास अंगन की यह गति को समुझावै या छपद पंसुहि।।
शब्दार्थ : दसहि=दशा। आहिं=हैं। तिसहिं=उसे। जसहि=जस को। न बसहि=वश में नहीं। षट्पद=भ्रमर। पसुहि=पशु को। तन=शरीर। रसना=जिह्वा।
संदर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारे हिंदी साहित्य के भ्रमरगीत सार से लिए गया है जिसके सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं।
प्रसंग :
यहां इस पद में गोपियाँ श्री कृष्ण के ध्यान में मग्न हैं लेकिन वे श्री कृष्ण के सुंदर रस रूपी, रूप का बखान करने में असमर्थ हैं अर्थात बता नहीं पा रहे हैं।
व्याख्या :
यहाँ पर गोपि उद्धव को अली के रूप में सम्बोधित करते हुए कह रही है। हे अली मैं कृष्ण के रूप, रस, श्रृंगार का कैसे वर्णन करूं इस शरीर के जो विभिन्न अवयव हैं उनमें परस्पर भेद है अर्थात अंतर् है।
मेरी जिव्हा मेरे नयनों की दशा को नही जानती और न ही वह उस दशा का वर्णन कर सकती हैं हे उद्धव एक अंग एक ही कार्य कर सकता है नयनों ने कृष्ण के रूप माधुर्य के दर्शन तो किये हैं किन्तु वे वचनों के अभाव में उसके वर्णन करने में असमर्थ हैं। और
जो जिव्हा बोलने में अथवा वर्णन करने में असमर्थ है वो नेत्र के अभाव में देखने में अथवा अनुभव करने में असमर्थ हैं नेत्र बोल नहीं पाते इसलिए कृष्ण के सगुण स्वरूप और उसके यश का स्मरण कर प्रेम के आवेग में उमड़ते हुए आंसुओं से भर उठते हैं।
अपनी इस विवसता के कारण हमारा मन बार-बार पश्चाताप से घिर उठता है जब विधाता ही बस में नहीं है तो ये मन कर भी क्या सकता है। हमारे भाग्य में प्रियतम कृष्ण से वियोग दशा लिखी थी अब उसे हम भुगत रहे हैं।
सूरदास जी कह रहे हैं की अपने शरीर के विभिन्न अंगों की विवशता से एक मुड़ छः पैरों वाले भौरे को कौन समझाये यह प्रेम के महत्व तथा प्रभाव को नही समझ पाता यह मुर्ख है। अतः इसको समझाना व्यर्थ है।
विशेष :
- प्रस्तुत पद्यांश में गोपियों में उध्दव को अली के रूप में सम्बोधित किया है।
- यहां उद्धव को गोपियाँ षट्पद अर्थात भ्रमर के समान कह रही हैं।
- इस पद में गोपियाँ उद्धव को प्रेम के महत्व समझाने में असमर्थता प्रकट कर रही हैं।
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