Bhramar Geet Saar Ki Vyakhya
भ्रमरगीत सार की व्याख्या
फिरि-फिरि कहा सिखावत मौन ?
दुसह बचन अति यों लागत उर ज्यों जारे पर लौन।।
सिंगी, भस्म, त्वचामृग, मुद्रा अरु अबरोधन पौन।
हम अबला अहीर, सठ मधुकर ! घर बन जानै कौन।।
यह मत लै तिनहीं उपदेसौ जिन्हैं आजु सब सोहत।
सूर आज लौं सुनी न देखी पोत सूतरी पोहत।।53।।
शब्दार्थ :
सिखावत=सिखाना। दुसह=असहय, कठोर। जारे पर लौन=जले पर नमक। त्वचामृग=मृग छाला। अवरोध पौन=सांस रोकना, प्राणायाम करना। पोत=काँच की बनी छोटी गुड़िया अथवा मोती। सूरती =सुतली।
सदर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारे हिंदी साहित्य के भ्रमरगीत सार से लिया गया है जिसके सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में उद्धव को गोपियाँ फटकार लगाते हुए उसे मुर्ख कहते हुए कह रहे हैं की तुम जले में नमक डाल रहे हो।
व्याख्या :
गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव तुम हमें बार-बार मौन साधने का उपदेश क्यों दे रहे हो कम से कम तुम हमें आपना दुःख तो कह लेने दो।
हे उद्धव, हे भ्रमर तुम्हारी ये योग साधना रूपी असहिय योग वचन इस प्रकार दुःख दे रहे हैं जैसे जले पर नमक छिड़क दिया गया हो। कवि कहना चाहते हैं की गोपियाँ कृष्ण के वियोग में पहले ही दुःखी और घायल हैं ऊपर से उद्धव उन्हें क्रृष्ण को त्याग कर ब्रम्ह प्राप्ति के लिए योग साधना का उपदेश दे रहें हैं ऐसा लगता है जैसे जले पर नमक छिड़क कर घायल को और अधिक कष्ट दिया जा रहा हो।
हे उध्दव तुम हमसे, सिंगी, भभूत, मृग छाला और मुद्रा धारण करके प्राणायाम की साधना करने को कहते हो किन्तु हे मुर्ख भ्रमर क्या तुमने कभी यह सोचा है की हम अबला अहीर नारियाँ हैं हमारे लिए ये किस प्रकार सम्भव है की हम तुम्हारे कठिन योग साधना से प्राप्त निर्गुण ब्रम्ह को अपना ले योग साधना तो वन में रहकर अपनाई जाती हैं हम तो न तो घर को त्याग सकती हैं। और न ही अपने घर को वन के समान निर्जन कर सकती हैं और यह असम्भव है क्योकिं हमारे घरों में कृष्ण संबंधी पुरानी यादें समाई हुई हैं जिन्हें हमें भुलाना पड़ेगा और यह हमारे लिए सम्भव नहीं हैं और इसलिए तुम्हारे लिए यही उचित है की तुम अपना उपदेश उन लोगों के पास ले जाओं जिन्हें आजकल यह करना सोभा देता है।
कवि कहना चाहता है कि यह योगसाधना का उपदेश उनके लिए नहीं बल्कि कुब्जा के लिए उचित है क्योकि वह कृष्ण के निकट पाकर सभी प्रकार से समर्थ और प्रसन्न है जो अनुराग में रत है उसके लिए योग साधना का उपदेश उचित है हम तो पहले से ही वैराग्य का जीवन व्यतीत कर रहीं हैं इस योग साधना के उपदेश का वास्तव में उस कुब्जा को अधिक आवश्यता है जो श्री कृष्ण के साथ विषय भोग में लिप्त है और अंत में गोपियाँ कहती हैं की हमने आज तक किसी भी व्यक्ति को मोती में सुतली फिरोते हुए नही देखा है। इस प्रकार यह कार्य असम्भव है तुम हमें योगसाधना के द्वारा निर्गुण ब्रम्ह को प्राप्त करने का जो उपदेश देते हो वह भी इसी प्रकार का असम्भव कार्य है। और तम्हें इस कार्य में सफलता नहीं मिल सकती।
विशेष :- मौन शब्द में श्लेष अलंकार है। योगी वाणी पर संयम प्राप्त करने के लिए योग साधना करते हैं यह योग का एक उपलक्षण है।
- "दुसह बचन अलि यों लागत डर ज्यों जारे पर लौन" में उपमा है तथा "जारे पर लौन" एक लोकोक्ति है।
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