कलचुरि वंश का इतिहास - छत्तीसगढ़

कलचुरि वंश का इतिहास - छत्तीसगढ़ के कलचुरि शासन में राजतंत्रीय शासन पद्धति प्रचलित थी। कलचुरि शिलालेख से ज्ञात होता है कि राज्य अनेक प्रशासनिक इकाइयों में विभक्त था-राष्ट्र { सम्भाग } , विषय { जिला } , देश या जनपद (वर्तमान तहसीलों की तरह) व मण्डल। मण्डल का अधिकारी ' मांडलिक ' तथा उससे बड़ा ' महामण्डलेश्वर ' { एक लाख ग्रामों का स्वामी } कहलाता था। इसके अतिरिक्त इनके करद सामन्तों की संख्या दिनों - दिन बढ़ती जा रही थी।

राजा के अधिकारीगण

राज्य के कार्यों के संचालन एवं प्रबन्ध हेतु राजा को योग्य एवं विश्वस्त सलाहकारों एवं अधिकारियों की आवश्यकता होती थी। नियुक्तियां योग्यतानुसार होती थीं , किन्तु छोटे पदों पर ; जैसे-लेखक,ताम्रपत्र लिखने वाले आदि की नियुक्तियां वंश परम्परा अनुसार होती थी।

मन्त्रिमण्डल

इसमें युवराज , महामन्त्री , महामात्य , महासन्धिविग्रहक { विदेश मंत्री } , महापुरोहित { राकजगुरु } , जमाबन्दी का मंत्री { राजस्व मंत्री } , महाप्रतिहार , महासामन्त और महाप्रमातृ आदि प्रमुख थे।

अधिकारी 

इसमें अमात्य एवं विभिन्न विभाग विभागाध्यक्ष होते थे। महाध्यक्ष नामक अधिकारी सचिवालय का मुख्य अधिकारी होता था। महासेनापति अथवा सेनाध्यक्ष सैन्य प्रशासन का व दण्डपाषिक अथवा दण्डनायक आरक्षी { पुलिस } विभाग का प्रमुख , महाभाण्डागारिक , महाकोट्टापाल { दुर्ग या किले की रक्षा करने वाला } आदि अन्य विभागाध्यक्ष होते थे। अमात्य शक्तिशाली होते थे।

यातायात प्रबन्ध 

यातायात प्रबन्ध का अधिकारी ' गमागमिक ' कहलाता था , जो गांव अथवा नगर से आवागमन पर नजर रखता था। यह अवैध सामग्री एवं हथियारों को जब्त करता था।

राज कर्मचारी 

प्रायः सभी ताम्रपत्रों में चाट , भट , पिशुन ,वेत्रिक, आदि राजकर्मचारियों का उल्लेख मिलता है , जो राज्य के ग्रामों में दौरा कर सम्बंधित दायित्वों का निर्वाहन करते थे।आय के स्रोत आय और उत्पाद के अनेक संसाधन थे। नमक कर , खान कर { लोहे , खनिज आदि पर } वन, चरागाह,बागबगीचा,आम,महुए आदि पर लगने वाले कर राज्य की आय के स्रोत थे। गांव में उत्पादित वस्तुओं पर निर्यात कर और बाहर की वस्तुओं पर आयात कर लगता था , जिस पर शासन का अधिकार होता था।

नदी के पार करने पर तथा नाव आदि पर भी कर लगाया जाता था। इसके अतिरिक्त मण्डीपिका अथवा मण्डी में माल की बिक्री के लिए आई हुई सब्जियों / सामग्रियों पर कर, हाथी , घोड़ें आदि जानवरों पर बिक्री कर लगाया जाता था। प्रत्येक घोड़े के लिए 2 पौर { चांदी का छोटा सिक्का } और हाथी के लिए 4 पौर कर लगाया जाता था। मण्डी में सब्जी बेचने के लिए '' युगा '' नामक परवाना { परमिट } लेना पड़ता था , जो दिनभर के लिए होता था। 2 युगवों के लिए एक पौर दिया जाता था।

न्याय व्यवस्था 

प्राचीन कलचुरीन कालीन न्याय व्यवस्था से सम्बंधिक जानकारी शिलालेख से प्राप्त नही होती है। दाण्डिक नामक एक अधिकारी न्याय अधिकारी होता था।

धर्म विभाग 

धर्म विभाग का अधिकारी पुरोहित होता था। दानपत्रों में इन अधिकारी का उल्लेख प्राप्त होता है। दानपत्रों का लेखा-जोखा तथा हिसाब रखने के लिए ' धर्म लेखि ' नामक अधिकारी होते थे।

युद्ध एवं प्रतिरक्षा प्रबन्ध 

हाथी,घोड़े,रथ,पैदल चतुरंगिणी सेना का संगठन अलग-अलग अधिकारी के हांथ में रहता था। महावतों का बहुत अधिक महत्व था। सर्वोच्च सेनापति राजा होता था, जबकि सेना का सर्वोच्च अधिकारी सेनापति , साधनिक या महासेनापति कहलाता था। हस्तीसेना का प्रमुख महापिलुपति तथा अश्वसेना प्रमुख ' महाश्वसाधनिक ' कहलाता था। बाह्य शत्रुओं से रक्षा हेतु राज्य में पुर अर्थात नगर दुर्ग का निर्माण किया जा था ; जैसे - तुम्मान ,रतनपुर ,जाजल्यपुर, मल्लालपत्तन आदि। पन्द्रहवीं सदि में तो रतनपुर नरेश बाहरसाय ने सुरक्षा की दृष्टि से कोसंगईगढ़ { छुरी } में अपना कोषागार बनवाया था।

राष्ट्र प्रबन्ध 

विदेश विभाग को ' सन्धि विग्रहाधिकरण ' के नाम से जाना जाता था। सन्धि-सुतक-विग्रह-युद्ध इस विभाग के प्रमुख कार्य थे। इसके मुख्य अधिकारी को महासंधिविग्रहिक के नाम से पुकारा जाता था।

पुलिस प्रबन्ध 

कानून एवं शांति व्यवस्था बनाए रखने हेतु पुलिस अधिकारी दण्डपाशिक, चोरों को पकड़ने वाला अधिकारी , दुष्ट-साधक, सम्पत्ति रक्षा के निमित्त पुलिस और नगरों मे सैनिक नियुक्त किये जाते थे। दान दिए गए गांवों में इनका प्रवेश वर्जित था। राजद्रोह आदि के मामले में ये बेधड़क कहीं भी आ-जा सकते थे।

राजस्व प्रबन्ध

विभाग का मुख्य अधिकारी ' महाप्रमातृ ' होता था , जो भूमि की माप करवाकर लगान निर्धारित करता था।

स्थानीय प्रशासन 

प्रत्येक विभाग के लिए एक पचंकुल या कमेटी होती थी , जिसकी व्यवस्था और निर्णयों के क्रियान्वयन के लिए राजकीय अधिकारी होते थे। इनमें प्रमुख अधिकारी-मुख्य पुलिस अधिकारी , पटेल तहसीलदार, लेखक या करणिक, शुल्क ग्राह अर्थात छोटे-मोटे करों को उगाहने वाला तथा प्रतिहारी अर्थात सिपाही होते थे।

नगर के प्रमुख अधिकारी को पुरप्रधान तथा ग्राम प्रमुख को ग्राम कूट या ग्राम भोगिक , कर वशुल करने वाले को शोल्किक , जुर्माना दण्डपाशिक के द्वारा वसूला जाता था। गांव जमीन आदि की कर वसूली का अधिकार पांच सदस्यों की एक कमेटी को था। पञ्च कुल के सदस्य महत्तर कहलाते थे। इनका चुनाव नगर व गांव की जनता द्वारा होता था। इसके प्रमुख सदस्य महत्तम कहलाते थे।

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