काकतीय वंश छत्तीसगढ़ - बस्तर राजवंश का इतिहास

काकतीय राजवंश का प्रारम्भ छिन्दक नागवंश (1023-1324 ई.) के बाद हुआ।  तेरहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में वारंगल का काकतीय शासक गणपति था, जो निः सन्तान था। उसने अपनी पुत्री रुद्राम्बा को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया, जिसने 1261-93 ई. तक वारंगल राज्य में शासन किया था। दन्तेवाड़ा के शिलालेख में भी बस्तर के शासकों को काकतीय कहा गया है। अतः इस वंश को काकतीय मानना ही उचित होगा।

    चालुक्य प्रतापरुद्रदेव

    चालुक्य प्रतापरुद्रदेव 1295 ई. में तेलंगाना का शासक बना था। 1309-10 ई. में अलाउद्दीन ख़िलजी के सेनापति मलिक काफूर ने अपनी दक्षिण विजय के दौरान देवगिरि को विजित करते हुए वारंगल पर आक्रमण कर दिया।  वह सेना की एक छोटी-सी टुकड़ी के साथ भटकते हुए बस्तर पहुंचा था। बस्तर में उन दिनों अनेक छोटे-छोटे शासक थे। उन्हें परास्त कर कुछ समय बस्तर में राज्य करने के उपरांत वह पुनः वारंगल लौटा, जहाँ उसकी मृत्यु हो गई।

      अन्नमदेव ( 1324-69 ई.)

      राजा अन्नमदेव को दन्तेवाड़ा के शिलालेख में ' अन्नमराज ' कहा गया है, जो प्रतापरुद्रदेव का अनुज था एवं 1324 ई. में वारंगल छोड़कर बस्तर पहुँचा था। राजा अन्नमदेव जिस समय सिंहासनारूढ़ हुआ था, उस समय उसकी आयु 32 वर्ष थी। उसकी रानी का नाम सोनकुंवर चन्देलिन, जोकि चन्देल राजकुमारी थी। 

      राजा अन्नमदेव एक वर्ष बारसूर में रहकर दन्तेवाड़ा में जा बसा था। मन्धोता अन्नमदेव की राजधानी थी तथा कालान्तर में परवर्ती राजाओं ने बस्तर को अपनी राजधानी बनाया था। अन्नमदेव ने लगभग 45 वर्षों तक शासन किया था। अन्नमदेव के बाद बस्तर के राजा अपने आपको चन्द्रवँशी कहने लगे थे। बस्तर के हल्बी-भतरी मिश्रित लोकगीतों में अन्नमदेव को ' चालकी बंस राजा ' भी कहा गया है।

        हमीरदेव ( 1369-1410 ई.)

        अन्नमदेव के उत्तराधिकारी शासक हमीरदेव को हमीरुदेव या एमीराजदेव भी कहा गया है। हमीरदेव 33 वर्ष की अवस्था में सिंहासनारुढ़ हुआ था। श्यामकुमारी बघेलिन ( बघेल राजकुमारी ) इनकी राजमहिषी थी। हमीरदेव के सम्बन्ध में कुछ जानकारी उड़ीसा ( ओडिशा ) के इतिहास से भी प्राप्त होती है।

          भैरवदेव (1410-68 ई.)

          हमीरदेव का उत्तराधिकारी भैरवदेव था। इसकी दो रानियों में एक ' मेघई अरिचकेलिन ' अथवा ' मेघावती आखेट ' विद्या में निपुण थी, जिसके स्मृति चिन्ह मेघी साड़ी,मेघई गोहड़ी प्रभृति ( शकटिका ) आज भी बस्तर में मिलते हैं।

            पुरुषोत्तमदेव ( 1468-1534 ई.)

            भैरवदेव के उत्तराधिकारी पुरुषोत्तमदेव ने 25 वर्ष की अवस्था में शासनसुत्र सम्भाला था। उसकी रानी का नाम कंचनकुवरि बघेलिन था। भगवान जगन्नाथ की रथ-यात्रा का बस्तर में प्रारम्भ पुरुषोत्तमदेव ने किया था। यह पर्व ' गोंचा ' के नाम से प्रसिद्ध है। आज भी यह पर्व जगदलपुर में प्रति कुँवार मास को मनाया जाता है। पुरुषोत्तमदेव ने मन्धोता को छोड़कर बस्तर में अपनी राजधानी बनाई थी।

              जयसिंहदेव ( 1534-58 ई.)

              पुरुषोत्तमदेव का पुत्र जयसिंह देव राजगद्दी का उत्तराधिकारी हुआ था। उसकी रानी का नाम चन्द्रकुंवर बघेलिन था। राज्याधिरोहन के समय उसकी आयु 24 वर्ष की थी।

              नरसिंहदेव ( 1558-1602 ई. )

              जयसिंहदेव का उत्तराधिकारी नरसिंहदेव 23 वर्ष की उम्र में सिंहासन का उत्तराधिकारी हुआ था। तथा उसकी रानी का नाम लक्षमीकुंवर बघेलिन था। यह रानी बड़ी उदार मनोवृत्ति की थी तथा उसने अनेक तालाब व बगीचे बनवाये थे।

              प्रतापराजदेव ( 1602-25 ई.)

              नरसिंहदेव के पश्चात प्रतापदेव अत्यंत प्रतापी शासक था। उनके शासनकाल में ही गोलकुण्डा के मोहम्मद कुली कुतुबशाह की सेना ने बस्तर पर आक्रमण किया था। कुतुबशाह की सेना बस्तर की सेना से बुरी तरह से पराजित हुई थी।

              जगदीशराजदेव ( 1625-39 ई.)

              इनके शासनकाल में गोलकुण्डा के अब्दुल्ला कुतुबशाह द्वारा जैतपुर तथा बस्तर के हिन्दू राज्यों पर मुशलमानों के अनेक धर्मान्धतापूर्ण आक्रमण हुए थे,किन्तु सभी आक्रमण असफल रहे थे। साथ ही मुगलों के पाँव भी कभी इस क्षेत्र में नहीं जम सके।

                वीरसिंहदेव ( 1654-80 ई.)

                वीरनारायण का पुत्र वीरसिंहदेव बड़ा ही पराक्रमी राजा था। पिता की मृयु के पश्चात 12 वर्ष की आयु में वह राजगद्दी पर बैठा था। उसकी रानी का नाम बदनकुंवर चन्देलिन था। राजा वीरसिंहदेव बड़ा उदार, धार्मिक, गुणग्राही और प्रजापालक था। उसने अपने शासनकाल में राजपुर का दूर्ग बनवाया था।

                  दिक्पालदेव ( 1680-1709 ई.)

                  वीरसिंहदेव की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी पुत्र दिक्पालदेव अल्प आयु पर गद्दी पर बैठा था। इसके समय की सबसे महत्वपूर्ण घटना 1703 ई. में चक्रकोट से बस्तर में राजधानी का स्थानांतरित होना था।

                  राजपालदेव ( 1709-21 ई.)

                  रायपुर के गुरु घासीदास स्मारक संग्रहालय में रखे बस्तर के राजवंश से सम्बद्ध एक महत्वपूर्ण ताम्रपत्र से विदित होता है की महाराज राजपालदेव ने ' प्रौढ़प्रताप-चक्रवर्ती ' की उपाधि धारण की थी और वे माणीकेश्वरी देवी के भक्त थे।

                  दलपतदेव ( 1731-74 ई.)

                  दलपतदेव के शासनकाल में सम्पूर्ण पाशर्ववर्ती क्षेत्र भोंसलों के आक्रमण से भयभीत थे। पाशर्ववर्ती छत्तीसगढ़ के रतनपुर का शासन भी 1741 ई. में हैहयवंशी राजा रघुनाथ सिंह के हांथों से जाता रहा। रतनपुर राजा ( छत्तीसगढ़ ) को अपने अधिकार में लेने के उपरांत 1770 ई. में मराठा सेना ने नीलू पण्डित या नीलू पन्त के अधिनायकत्व में बस्तर पर आक्रमण किया था।, किन्तु बस्तर के रणबांकुरों के समक्ष मराठा सेना को घुटने टेकने पड़े थे।

                  दलपतदेव के अनुज ने मराठों के साथ मिलकर बस्तर पर आक्रमण करने के लिए उकसाया था। दलपतदेव प्राण बचाकर भाग गए, किन्तु पुनः मराठों से जीत गए थे। अजमेर सिंह क्रांति का पहला मसीहा दलपतदेव ने युवावस्था में ही पटरानी के पुत्र अजमेर सिंह को डोंगर का अधिकारी बना दिया था। जब दलपतदेव की मृत्यु हुई थी, उस समय अजमेर सिंह डोंगर में या तथा रानी के पुत्र दरियदेव ने अनाधिकृत रूप से राजा बनने के विचार से अजमेर सिंह पर चढ़ाई कर दी थी।

                  दोनों के मध्य संघर्ष हुआ तथा दरियादेव पराजित होकर जगदलपुर भाग गया था। इस प्रकार 1774 ई. में ही अजमेर सिंह बस्तर राजसिंहासन पर बैठा था। दरियादेव ने जैपुर शासक राजा विक्रमदेव ( 1758-81 ई.) से मित्रता कर उसी के माध्यम से नागपुर के भोंसले व कम्पनी सरकार के अधिकारी जॉनसन से सम्पर्क किया।

                  कुछ शर्तों के आधार पर ही तीनों ही ताकतों ने अजमेर सिंह के विरुद्ध दरीयावदेव को सहायता देने का वचन दिया तदनुसार 1777 ई. में कम्पनी सरकार के प्रमुख जॉनसन व जैपुर की सेना ने पूर्व से व भोंसला के अधीन नागपुर की सेना ने उत्तर दिशा से जगदलपुर को घेर लिया था।

                  फलस्वरूप अजमेर सिंह परास्त होकर जगदलपुर से भागकर डोंगर चला गया था। हल्बा विद्रोह ( 1774-79 ई.) तथा चालुक्य राज का पतन डोंगर वह क्षेत्र है जहां हल्बा क्रांति प्रारम्भ हुई थी चालुक्य हल्बा क्रांति को रोक नहीं पाये और जब उन्होंने ऐसा प्रयास किया , तो चालुक्य शासन का पतन हो गया था।

                  राज्य की स्वतन्त्रता छिन गयी थी और वे कम्पनी सरकार के षड्यंत्र से मराठों के पराधीन हो गए थे। डोंगर में हल्बा विद्रोह कई कारणों से भड़का था। इसमें भौगोलिक सीमा , अनिश्चित वर्षा, आवागमन के कठिन साधन तथा कृषि योग्य सीमित भूमि प्रमुख कारण रहे हैं। 1774 ई. में हल्बा विद्रोह डोंगर में अल्प परिणाम में प्रारम्भ हुआ था। कई स्थितियां और परिस्थितियों के कारण उनकी उन्नती हुई थी।

                  1777 ई. में अजमेर सिंह की मृत्यु के पश्चात उसकी हल्बा सेना को बर्बरता के साथ मृत्यु के घाट उतार दिया गया एवं कुटिलता के साथ समस्त हल्बाओं को मार डाला गया। केवल एक हल्बा अपनी जान बचा सका था। इतना बड़ा नर संहार विश्व के इतिहास में कभी नहीं हुआ था , जहां पूरी जनजाति का सफाया कर दिया गया हो। इस प्रकार अजमेर सिंह की मृत्यु और हल्बा क्रांति के पतन को बस्तर में चालुक्य राजाओं की समाप्ति माना जा सकता है।

                  इसी के साथ बस्तर भोंसलों के अधीन हो गया और बस्तर में चालुक्य वंश का राज्य समाप्त हो गया था। इसके बाद बस्तर में मराठों का राज्य प्रारम्भ हुआ।

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