Bhramar Geet Saar Ki Vyakhya
अगर आप हमारे ब्लॉग को पहली बार विजिट कर रहे हैं तो आपको बता दूँ की इससे पहले हमने भ्रमर गीत के पद क्रमांक 6 की व्याख्या को अपने इस ब्लॉग questionfieldhindi.blogspot.com में पब्लिस किया था। आज हम भ्रमर गीत पद क्रमांक 7 की सप्रसंग व्याख्या के बारे में जानेंगे तो चलीये शुरू करते हैं।
भ्रमरगीत सार की व्याख्या
पद क्रमांक 7 व्याख्या
- सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल
मन क्रम बच मैं तुम्हें पठावत ब्रज को तुरत पलानों।
पूरन ब्रम्ह, सकल अबिनासी ताके तुम हौ ज्ञाता।
रेख न रूप, जाति, कुल नाहीं जाके नहिं पितु माता।।
यह मत दै गोपिन कहँ आवहु बिनह-नदी में भासति।
सूर तुरत यह जसस्य कहौ तुम ब्रम्ह बिना नहिं आसति।।7।।
शब्दार्थ : क्रम = कर्म। बच=वचन। पठावत=भेजता हूँ। तुरत=तुरंत। पलानों=जाओ, प्रस्थान करो। अविनाशी=जिसका नाश न हो। जाके=जिसके। ज्ञाता=जानकार। भासित=सामीप्य या मुक्ति।
संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हमारे हिंदी साहित्य के भ्रमर गीत सार से लिया गया है जिसके रचियता सूरदास जी हैं और सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं।
प्रसंग : उद्धव को श्री कृष्ण शीघ्र ही ब्रज प्रस्थान करने को कह रहे हैं, जो बार-बार ब्रम्ह की रट लगाते रहते हैं।
व्याख्या : श्री कृष्ण उद्धव से कहते हैं की हे उद्धव तुम अपने मन में यह निश्चय जान लो की मैं सम्पूर्ण सद्भावना एवं मन वचन कर्म के साथ ब्रज भेज रहा हूँ। इसलिए तुम तुरंत वहां के लिए प्रस्थान करो। कवि का यह भाव है की कृष्ण सच्चे हृदय से उद्धव को ब्रज जान को कह रहे हैं। इससे उन्हें दो कार्यों की सिद्धि अभीष्ट है एक तो उन्हें वहां का कुशल समाचार प्राप्त हो जाएगा और दुसरा गोपियों के अनन्य प्रेम को परखकर ज्ञान गर्वित उद्धव प्रेम के सरल व सीधे मार्ग को पहचान सकेंगे प्रेम का महत्व जान सकेंगे।
कृष्ण उद्धव से कहते हैं तुम्हारा ब्रम्ह, पूर्ण, अनीश्वर और अखंड रूप है और तुम्हें ऐसे अविनाशी ब्रम्ह का पूर्ण ज्ञान प्राप्त है। तुम्हारे ब्रम्ह की न तो कोई रूप रेखा है न ही कोई कुलवंश है। और न ही उसके कोई माता पिता हैं।
कहने का मतलब या भाव यही है की तुम्हारा ब्रम्ह अखंड अनादि, अजर, अमर और पूर्ण है वह सब प्रकार के सांसारिक संबंधों से अछूता और स्वतंत्र है इसलिए कृपा करके तुम अपना यह ब्रम्ह ज्ञान ब्रज पल्ल्वियों को सुनाकर आओ।
तुम वहां सीधा जाकर उन गोपियों को समझा बुझा कर आना क्योकि वे मेरे विरह में निम्न पूर्ण होकर विरह की नदी में डूब रहीं हैं। तुरंत उससे जाकर कहो। की ब्रम्ह के बिना जीवन में मोक्ष की प्राप्ती नही हो सकती वह ब्रम्ह ही जीवन का सार तत्व है। तुम जाकर यह समझाओ की प्रेम भाव त्यागकर अविनाशी ब्रम्ह का ध्यान करें और उसी में अपनी समस्त शक्ती लगा दे तभी उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो सकेगी अन्यथा नही।
विशेष :
पूरन ब्रम्ह, सकल अबिनासी ताके तुम हौ ज्ञाता।
रेख न रूप, जाति, कुल नाहीं जाके नहिं पितु माता।।
यह मत दै गोपिन कहँ आवहु बिनह-नदी में भासति।
सूर तुरत यह जसस्य कहौ तुम ब्रम्ह बिना नहिं आसति।।7।।
शब्दार्थ : क्रम = कर्म। बच=वचन। पठावत=भेजता हूँ। तुरत=तुरंत। पलानों=जाओ, प्रस्थान करो। अविनाशी=जिसका नाश न हो। जाके=जिसके। ज्ञाता=जानकार। भासित=सामीप्य या मुक्ति।
संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हमारे हिंदी साहित्य के भ्रमर गीत सार से लिया गया है जिसके रचियता सूरदास जी हैं और सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं।
प्रसंग : उद्धव को श्री कृष्ण शीघ्र ही ब्रज प्रस्थान करने को कह रहे हैं, जो बार-बार ब्रम्ह की रट लगाते रहते हैं।
व्याख्या : श्री कृष्ण उद्धव से कहते हैं की हे उद्धव तुम अपने मन में यह निश्चय जान लो की मैं सम्पूर्ण सद्भावना एवं मन वचन कर्म के साथ ब्रज भेज रहा हूँ। इसलिए तुम तुरंत वहां के लिए प्रस्थान करो। कवि का यह भाव है की कृष्ण सच्चे हृदय से उद्धव को ब्रज जान को कह रहे हैं। इससे उन्हें दो कार्यों की सिद्धि अभीष्ट है एक तो उन्हें वहां का कुशल समाचार प्राप्त हो जाएगा और दुसरा गोपियों के अनन्य प्रेम को परखकर ज्ञान गर्वित उद्धव प्रेम के सरल व सीधे मार्ग को पहचान सकेंगे प्रेम का महत्व जान सकेंगे।
कृष्ण उद्धव से कहते हैं तुम्हारा ब्रम्ह, पूर्ण, अनीश्वर और अखंड रूप है और तुम्हें ऐसे अविनाशी ब्रम्ह का पूर्ण ज्ञान प्राप्त है। तुम्हारे ब्रम्ह की न तो कोई रूप रेखा है न ही कोई कुलवंश है। और न ही उसके कोई माता पिता हैं।
कहने का मतलब या भाव यही है की तुम्हारा ब्रम्ह अखंड अनादि, अजर, अमर और पूर्ण है वह सब प्रकार के सांसारिक संबंधों से अछूता और स्वतंत्र है इसलिए कृपा करके तुम अपना यह ब्रम्ह ज्ञान ब्रज पल्ल्वियों को सुनाकर आओ।
तुम वहां सीधा जाकर उन गोपियों को समझा बुझा कर आना क्योकि वे मेरे विरह में निम्न पूर्ण होकर विरह की नदी में डूब रहीं हैं। तुरंत उससे जाकर कहो। की ब्रम्ह के बिना जीवन में मोक्ष की प्राप्ती नही हो सकती वह ब्रम्ह ही जीवन का सार तत्व है। तुम जाकर यह समझाओ की प्रेम भाव त्यागकर अविनाशी ब्रम्ह का ध्यान करें और उसी में अपनी समस्त शक्ती लगा दे तभी उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो सकेगी अन्यथा नही।
विशेष :
- श्री कृष्ण उद्धव को अभीष्ट कार्य के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
- निर्गुण सम्प्रदाय के अनुसार ब्रम्ह के बिना मुक्ति असम्भव है।
- विरह नदी में निरंक रूपक अलंकार का प्रयोग किया गया है।
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