भ्रमर गीत सार : सूरदास पद क्रमांक 5 सप्रसंग व्याख्या By Khilawan

Bhramar Geet Saar Ki Vyakhya

अगर आप हमारे ब्लॉग को पहली बार विजिट कर रहे हैं तो आपको बता दूँ की इससे पहले हमने भ्रमर गीत के पद क्रमांक 4 की व्याख्या को अपने इस ब्लॉग questionfieldhindi.blogspot.com में पब्लिस किया था। आज हम भ्रमर गीत पद क्रमांक 5 की सप्रसंग व्याख्या के बारे में जानेंगे तो चलीये शुरू करते हैं।

भ्रमरगीत सार की व्याख्या

पद क्रमांक 5 व्याख्या

- सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल

जदुपति लख्यो तेहि मुसकात। 
कहत हम मन रही जोई सोइ भई यह बात।। 
बचन परगट करन लागे प्रेम-कथा चलाय। 
सुनहु उध्दव मोहिं ब्रज की सुधि नहीं बिसराय।। 
रैनि सोवत, चलत, जागत लगत नहिं मन आन। 
नंद जसुमति नारि नर ब्रज जहाँ मेरो प्रान।। 
कहत हरि सुनि उपंगसुत ! यह कहत हो रसरीति। 
सूर चित तें टरति नाही राधिका की प्रीति।।

शब्दार्थ:- जदुपति = श्री कृष्ण। लख्यो = देखा। तेहि = उसको अर्थात उद्धव को। जोई = जो। रैनी = रात्रि। आन = अन्यत्र।

संदर्भ:- प्रस्तुत पद्यांश हमारे हिंदी साहित्य के भ्रमर गीत सार से लिया गया है जिसके रचियता सूरदास जी हैं और सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं।

प्रसंग:- श्री कृष्ण उध्दव से ब्रज के विषय में बात-चित कर रहे हैं।

व्याख्या:- उद्धव श्री कृष्ण की प्रेम दुर्बलता को देखकर मुस्कुरा पड़ते हैं। यह मुस्कराहट उद्धव के सैद्धांतिक विषय की सफल अभिव्यिक्ति थी। जिसे कृष्ण ने ताड लिया। फलतः श्री कृष्ण ने उन्हें उलझाते हुए अपने प्रेम का मोह और खोलकर रखा जिसके पीछे मंत्री पद से संकेतित किया गया है। उस राधिका का नाम रति निष्ठा के साथ श्री कृष्ण ने लिया है। जिससे उद्धव  का गर्व पूरे आयाम के साथ अपने कर्तब्य का सारम्भ पाता है। जो काव्य  की प्रबंधता को अत्यंत चुस्त बना देता है। श्री कृष्ण  ने उद्धव को प्रेम प्रसंग की चर्चा में उद्धव को मुस्कुराते हुए देख लिया वो अपने मन में सोचने लगे की हमने उद्धव के विषय में जो धारणा विकसित की थी वह सत्य प्रमाणित हो रही है। क्योकि उसका यह मुस्काना स्पष्ट करता है की वह दृढ योग मार्गी है। इतना कहने पर भी उन्होंने अपने मन के भावों को हृदय में दबाए रखा और पुनः ब्रजवासियों के प्रेम प्रसंग की चर्चा प्रारम्भ कर दी वे कहने लगे। हे उद्धव वह ब्रज की स्मृति को भुला पाने में सर्वथा असमर्थ हैं रात्रि में सोते समय दिन में जागते समय और दर-दर घूमते समय में ब्रज की स्मृति में ही डूबा रहता हूँ मेरा मन अन्यत्र कहीं नही लगता। 
जहां ब्रज में नंद बाबा, यशोदा माता तथा अन्य नर नारियाँ अर्थात गोप गोपिकाएं निवास करती हैं वहीं उन्हीं के पास मेरे प्राण रहते हैं। मैं सदैव उनकी स्मृति में खोया रहता हूँ ऐसा लगता है कि मेरे उनके अतिरिक्त कोई अस्तित्व ही नही है। 
हे उद्धव सुनों मैं तुम्हारे सम्मुख प्रेम की रीति का वर्णन करता हूँ मेरे हृदय से राधा की प्रीति क्षण भर के लिए दूर नही हो पाती कवि के कहने का आशय है कि प्रेम की रीति ही ऐसी है कि प्रेमी निरन्तर अपने प्रेमी के स्थान में निमग्न रहे मैं यहां राधा से दूर हूँ किंतु वस्तुतः मैं उसे क्षण भर के लिए विस्तृत नही कर पाता है।

विशेष:-

उपरोक्त पद में कृष्ण अत्यंत लाघव के साथ राधा को सम्पूर्ण गोपिकाओं में अनन्य स्थान की अधिकारिणी घोषित करते हुए उसके प्रति अपनी अनन्य प्रीति की व्यंजना कर रहे है।

आपको इन्ही हिंदी साहित्य से जुड़े विभिन्न प्रकार के जानकारियों के लिए नीचे लिंक दिया गया है जो की इस प्रकार है-

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