भ्रमर गीत सार : सूरदास पद क्रमांक 6 सप्रसंग व्याख्या By Khilawan

Bhramar Geet Saar Ki Vyakhya by Khilawan

अगर आप हमारे ब्लॉग को पहली बार विजिट कर रहे हैं तो आपको बता दूँ की इससे पहले हमने भ्रमर गीत के पद क्रमांक 5 की व्याख्या को अपने इस ब्लॉग questionfieldhindi.blogspot.com में पब्लिस किया था। आज हम भ्रमर गीत पद क्रमांक 6 की सप्रसंग व्याख्या करेंगे तो चलीये शुरू करते हैं।

भ्रमरगीत सार की व्याख्या

पद क्रमांक 6 व्याख्या
-- संपादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल


छठा पद कुछ इस प्रकार से है-

6. राग सारंग

सखा? सुनों मेरी इक बात।
वह लतागन संग गोरिन सुधि करत पछितात।।
कहाँ वह वृषभानु तन या परम् सुंदर गात।
सरति आए रासरस की अधिक जिय अकुलात।।
सदा हित यह रहत नाहीं सकल मिथ्या-जात।
सूर प्रभू यह सुनौ मोसों एक ही सों नात।।6।।

शब्दार्थ : लतागन = लताओं।  वृषभानुतनया = वृषभानु की पुत्री, राधा। गात = शरीर। सुरति = याद। रासरस = आनंद-विहार या क्रीड़ा केली। जिय = हृदय। अकुलात = व्याकुल हो जाता है। सकल = समस्त। मिथ्याजात = मिथ्या भावना के कारण उत्पन्न, भ्रम रूप। नात = नाता, संबंध।

संदर्भ:- प्रस्तुत पद्यांश हमारे हिंदी साहित्य के भ्रमर गीत सार से लिया गया है जिसके रचियता सूरदास जी हैं और सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं।

प्रसंग : श्री कृष्ण राधा के विषय में उद्धव से अपने प्रेम भावना व्यक्त या प्रकट कर रहे हैं।

व्याख्या : श्री कृष्ण उद्धव से कहते हैं की हे सखा, तुम मेरी एक बात सुनों। मैंने ब्रज के ही लता कुंजों में गोपिकाओं के ही साथ अनेक प्रकार की रास लीलाएँ की हैं। उन मधुर क्षणों को मैं स्मरण कर पश्चाताप करता रहता हूँ कि उन्हें उनके साथ व्यतीति होने वाली आनंद की घड़ियों को छोड़कर यहां क्यों आ गया। वह सुंदर और आकर्षक शरीर वाली वृषभानु तनया राधा यहां कहाँ है ? जब मुझे ब्रज में गोपियों और राधिका के साथ किये गए आनंद-विहार की स्मृति हो आती है तो हृदय और भी आकुल-व्याकुल हो उठता है श्री कृष्ण की इन प्रेम रस पूर्ण बातों को सुनकर ज्ञान मार्गी उद्धव उनके मित्र कहते हैं की हे मित्र प्रेम सदा एक सा और स्थिर नहीं रहता क्योंकि यह संसार जिसके प्रति यह प्रेम उत्पन्न होता है वह वहम है अतः मिथ्या संसार के प्रति उत्पन्न यह प्रेम भी अस्थिर और भ्रम मात्र है।
हे कृष्ण तुम मेरी एक बात सुनों और वह यह है की केवल एक ब्रम्ह से संबंध रखो की वहीं नित्य स्थाई सर्वत्र विद्यमान और स्थिर है तथा वह सत्य एवं सास्वत है।

विशेष :
  • यह पद ज्ञान और भक्ति के विवाद की भूमिका है। 
  • उद्धव कृष्ण के प्रेम का उपहास करते हुए ब्रम्ह सत्य जगत का प्रतिपादन कर रहे हैं। 
  • इस पद का उद्देश्य कृष्ण द्वारा उध्दव को प्रेम के प्रति ध्यान आकृष्ट करना है। 
आपको लगता है अगर व्याख्या में कोई त्रुटि हो तो कमेंट में मुझे बताएं मैं उसे सुधारने की पूरी कोशिश कर्रूँगा। 


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