Bhramar Geet Saar Ki Vyakhya
भ्रमरगीत सार की व्याख्या
61. राग धनाश्री
रहु रे, मधुकरा मधुमतवारे ।
कहा करों निर्गुन लै कै हौं जीवहु कान्ह हमारे।।
लोटत नीच परागपंक में पचत, न आपु सम्हारे ।
बारम्बार सरक मदिरा की अपरस कहा उघारे।।
तुम जानत हमहूँ वैसी हैं जैसे कुसुम तिहारे ।
घरी पहर सबको बिलमावत जेते आवत कारे।।
सुन्दरस्याम कमलदल- लोचन जसुमति-नँद-दुलारे ।
सूर स्याम को सर्बस अयों अब कापै हम लेहिं उधारे।।
शब्दार्थ -
मधुकर - उद्धव, मधुम - मस्त रहने वाला, कान्ह - कृष्ण, मदिरा - शराब, कुसुम - फूल, कमलदल - कमल के समूह, लोचन - नेत्र।
संदर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारे हिंदी साहित्य के भ्रमर गीत से लिया गया है जिसके सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं। इन पदों का सम्पादन उन्होंने सूरदास की रचना सूरसागर से किया है।
प्रसंग :
इस पद्यांश में सूरदास जी ने गोपियों के माध्यम से उद्धव को प्रश्न किया है तथा उन्होंने तन मन उधार किससे लें इसका जवाब माँगा है।
व्याख्या :
इस पद्यांश में सूरदास ने प्रस्तुत किया है उद्धव से गोपियाँ कह रहीं हैं भौरे की आड़ लेकर अर्थात भौरे के बहाने की हे मधुकर हे उद्धव तुम मधु पीने में व्यस्त रहो और हमें भी मस्त रहने दो। हम तुम्हारा यह निर्गुण लेकर क्या करेंगे हमारे तो सगुण साकार श्री कृष्ण हैं जो की चिरंजीवी हैं।
तुम स्वयं तो नीचे पराग में लोट लोट कर ऐसे बेसुध हो गए हो जो स्वयं अपनी शरीर की सुध भी नहीं रख पाते हो इतना ज्यादा शराब पी लेते हो और तुम बार बार बड़े ताव से रस के विरुद्ध बातें करते हो।
तुम्हें तो पता है हम तुम्हारे जैसे नहीं हैं की तुम्हारी तरह फूल-फूल पर बहके, हमारा तो एक ही है। जिसके आने पर समय कैसे व्यतीत हो जाता है किसी को पता भी नहीं चलता है। कान्हां जो सुन्दर मुख वाला है, नीलकमल से नयन वाला यशोदा का दुलारा है। हमने अपना पूरा सर्वस्व उन्हीं पर वार दिया है। अब हम किसी निर्गुण पर वारने के लिए तन-मन किससे उधार लें?
विशेष -
1. इस गद्यांश में गोपियों के विरह का कारण के साथ वर्णन किया गया है।
2. निर्गुण को न अपनाने की वजह गोपियों ने बताई है।
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