भ्रमरगीत सार : सूरदास पद क्रमांक 90 सप्रसंग व्याख्या By Khilawan

भ्रमरगीत सार आचार्य रामचंद्र शुक्ल 

अगर आप हमारे ब्लॉग को पहली बार विजिट कर रहे हैं तो आपको बता दूँ की इससे पहले हमने भ्रमर गीत के पद क्रमांक 89 की व्याख्या को अपने इस ब्लॉग questionfieldhindi.blogspot.com में पब्लिस किया था। आज हम भ्रमर गीत पद क्रमांक 90 की सप्रसंग व्याख्या के बारे में जानेंगे तो चलीये शुरू करते हैं।

भ्रमर गीत सार व्याख्या 

  पद क्रमांक 90 व्याख्या 

सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल

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90. राग नट

नंदनंदन मोहन सों मधुकर ! है काहे की प्रीति ?
जौ कीजै तौ है जल, रवि औ जलधर की सी रीति।।
जैसे मीन, कमल, चातक, को ऐसे ही गई बीति।
तलफत, जरत, पुकारत सुनु, सठ ! नाहिं न है यह रीति।।
मन हठि परे, कबंध जुध्द ज्यों, हारेहू भइ जीति।
बँधत न प्रेम-समुद्र सूर बल कहुँ बारुहि की भीति।।

शब्दार्थ - नंदनंदन=कृष्ण। काहे की = किस बात की। जलधर = जलाशय या बादल। गइ बीति = यों ही व्यतीत हो गई। कवंध = धड़। वारुहि = बालू की। भीति = दीवार। 

संदर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हमारे हिंदी साहित्य के भ्रमरगीत सार से लिया गया है जिसके सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं। 

प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश में गोपियाँ कृष्ण की निष्ठुरता पर व्यंग्य करती जो कह रही हैं उसका वर्णन इस पद में किया गया है। 

व्याख्या - उद्धव के वचन को सुनकर गोपियो को जो कष्ट हुआ वह बताया नही जा सकता है। कहने की आवश्यकता नही है की कृष्ण का व्यवहार गोपियों के प्रति निष्ठुरतापूर्ण था। इसी निष्ठुरता पर व्यंग्य करती हुई गोपियों कह रहीं हैं कि हे भ्रमर ! 

नंदनंदन कृष्ण से हमारी प्रीति किस बात की है। भाव यह है कि वे हमें प्रेम ही नहीं करते हैं। उनसे जो भी प्रेम करता है वह पछताता रहता है। कारण कृष्ण का व्यवहार तो अपने प्रियजनों के प्रति उसी प्रकार का है जैसा की जल, सूर्य और बादल का जल से मछली प्रेम करती है, सूर्य से कमल और बादल से चातक प्रेम करता है पर इन प्रेम करने वालों की स्थिति ऐसी है कि स्वयं तो प्रेम में तड़फते रहते हैं और अपने प्रिय से कुछ प्रेम प्राप्त नहीं करते। 

जल के आभाव में मछली तड़पती रहती है। सूर्य के आभाव में कमल जलकर ही चैन पाता है - अर्थात विनष्ट हो जाता है। इसी प्रकार बादल के बिना चातक पी पी की पुकार लगाता रहता है। 

हे शठ अर्थात हे मुर्ख भ्रमर तू इस बात को अच्छी तरह समझ ले कि प्रेम का यह नियम नहीं है। प्रेम तो दोनों ओर से होता है। कोई उसे एक ओर से निभाना चाहे तो वह सम्भव नही है। 

अतः प्रेम का यह नियम नहीं है जो तुम या तुम्हारे आराध्य अपना रहे हो। मीन, कमल और चातक अपने मन से प्रेम करते हैं और उनके मर जाने पर प्रिय को प्राप्त करने में असफल हो जाने पर भी उसकी जीत ही मानी जानी चाहिए। योद्धा युद्ध में लड़ते हैं फिर लड़ते लड़ते उनका सिर कट जाता है तो उनका धड़ ही लड़ता रहता है। 

यह उनकी निष्ठा है और इसी कारण उसके निमित्त उन्हें प्रतिष्ठा या सम्मान की प्राप्ति होती हैं। मछलियाँ और चातक आदि भी अपनी प्रेमजनित निष्ठा के कारण ही ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। सूरदास कहते हैं कि गोपियों ने उद्धव से कहा कि हे उद्धव ! प्रेम का सागर कहीं बालू या रेत की दीवार के द्वारा वश में किया जा सकता है। 

भाव यह है की यह सम्भव नहीं है तो हमारा व्यक्तित्व भी इसे कैसे सम्पन्न करे। तुम्हारा निर्गुण ब्रम्ह का उपदेश हमारे हृदयों में प्रवाहित प्रेम के सागर को कैसे बाँध सकता है। इतने पर भी यदि तुम यही समझते हो कि यह सम्भव है तो यह तुम्हारा भ्रम है। 

गोपियाँ यह कहना चाहती हैं कि हम अपने प्रेम-मार्ग से पूर्णतः दृढ़ता से सलग्न हैं। उसमें कोई भी कमजोरी नहीं है। 

विशेष -

  1. इस पद में यथाक्रम और उत्प्रेक्षा अलकारों का प्रयोग किया गया है। 
  2. पांचवीं पंक्ति - ' मन हठि.......रीति। ' निदर्शना अलंकार तथा ' प्रेम - समुद्र में रूपक का वैभव पूरी कलात्मकता के साथ सुरक्षित है। 
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