Bhramar Geet Saar Ki Vyakhya
भ्रमरगीत सार की व्याख्या
भ्रमरगीत सार सूरदास
30. राग धनाश्री
कहतें हरि कबहूँ न उदास।
राति खवाय पिवाय अधरस क्यों बिसरत सो ब्रज को बास।।
तुमसों प्रेम कथा को कहिबो मनहुं काटिबो घास।
बहिरो तान-स्वाद कहँ जानै, गूंगो-बात-मिठास।
सुनु री सखी, बहुरि फिरि ऐहैं वे सुख बिबिध बिलास।
सूरदास ऊधो अब हमको भयो तेरहों मास।।
शब्दार्थ : कबहूँ=कभी भी। राति=प्रेमपूर्वक। पिवास=पिलाकर। विसरत=भूलना। अधर=होंठ। काटिबो घास=घास काटना, बेकार मगझ मारना। तान स्वाद=संगीत का आनन्द। बात मिठास=बातों का मीठापन। बहुरि=फिर। तरहों मास=अवधि बीत जाना।
सन्दर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हमारे हिंदी साहित्य से भ्रमर गीत सार नामक पाठ से लिया गया है जिसके सम्पादक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी हैं।
प्रसंग : प्रस्तुत गूंगे बहरों का उदाहरण देते हुए गोपियाँ उद्धव को विरह की व्यथा गान सुना रही हैं।
व्याख्या : हमारे प्रभु श्री कृष्ण हमसे कभी न उदास अथवा उदासीन नहीं हो सकते हैं क्योकि उन्हें ब्रज भूमि में बिताया हुआ समय अभी भी भूल नही पायेगा क्योकी वे जब हमारे पास थे तो हमने उन्हें प्रेमपूर्वक माखन खिलाया था। और प्रेम की अवस्था में हमने अपने अधरों से अमृत रस का पान कराया था और इसीलिए भी इस ब्रज भूमि का अपना निवास कभी भी भुला नही पाएंगे।
लेकिन तुम्हारे सामने तो इस प्रेम कथा का वर्णन करना इसका बखान करना मानों घास काटने के समान है अर्थात तुमसे माथा पच्ची करना है न तो तुम इसके महत्व को जान सकते हो और न इससे अदीत हो सकते हो।
तुम्हारी यति या स्थिति तो उस भैरे के समान है जो संगीत के उतार-चढाव से विस्मृत मधुर तानों का स्वाद नही जानता और गुंगा व्यक्ती प्रेमालाप से उपलब्ध रस को ग्रहण नही कर सकता यदि या तो तुम बहरे हो या गूंगे हो या तो तुम्हारी गति उस बहरे मनुष्य के समान है अथवा गूंगे व्यक्ति के समान।
एक गोपी अपनी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखी सुनो क्या हमारे जीवन में वही सुख अनेक प्रकार की प्रेम कलियाँ क्या फिर कभी आएगी क्या कभी हमारे श्री कृष्ण पुनः ब्रज आएंगे और हमारे साथ वहीं प्रेम क्रीड़ाएं करेंगे। अब तो उनके आने का समय भी आ गया है।
सूरदास जी कहते हैं कि गोपी अपनी सखी से कह रही हैं कि अब तो उनके आने का समय भी आ गया है क्योकि जितनी अवधी के लिये वह मथुरा गए थे। कुछ समय के लिए गए थे और वह अवधी समाप्त हो रही है और इसलिए हमें आशा है कि वे शीघ्र ही लौटकर वह आएंगे।
भ्रमरगीत सार की विशेषताएं - प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने मनहु काटिबो घास और भयो तरहों मास आदि ग्रामीण मुहावरों का प्रयोग किया है।
मनहु काटीबो घास में उत्प्रेक्षा अलंकार है। अंतिम पंक्ति में तेरह मास का तात्पर्य यह है कि अब अवधि समाप्त हो गयी है क्योकि वर्ष में बारह महीने होते हैं तेरवा महीना आ गया अर्थात जो बारह महीने थे वे बीत गए अर्थात जो विरह की अवस्था होती है। उसे कवियों ने बारह मास का नाम दिया है तो बारह मासा बीत चुका है और तेरहवाँ मासा आ गया है अर्थात अब मिलन की आशा जगमगा गई है क्योकि वह अवधी जो विरह की थी वह समाप्त हो गयी है।
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