Bhramar Geet Saar Ki Vyakhya
अगर आप हमारे ब्लॉग को पहली बार विजिट कर रहे हैं तो आपको बता दूँ की इससे पहले हमने भ्रमर गीत के पद क्रमांक 25 की व्याख्या को अपने इस ब्लॉग questionfieldhindi.blogspot.com में पब्लिस किया था। आज हम भ्रमर गीत पद क्रमांक 26 की सप्रसंग व्याख्या के बारे में जानेंगे तो चलीये शुरू करते हैं।
भ्रमरगीत सार की व्याख्या
पद क्रमांक 26 व्याख्या
- सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल
26. राग बिलावल
ए अलि ! कहा जोग में नीको ?
तजि रसरीति नंदनंदन की सिखवन निर्गुन फीको।।
देखत सुनत नाहि कछु स्रवननि, ज्योति-ज्योति करि ध्यावत।
सुंदर स्याम दयालु कृपानिधि कैसे हौ बिसरावत ?
सुनि रसाल मुरली-सुर की धुनि सोइ कौतुक रस भूलै।
अपनी भुजा ग्रीव पर मैले गोपिन के सुख फूलै।।
लोककानि कुल को भ्र्म प्रभु मिलि-मिलि कै घर बन खेली।
अब तुम सुर खवावन आए जोग जहर की बेली।।
तजि रसरीति नंदनंदन की सिखवन निर्गुन फीको।।
देखत सुनत नाहि कछु स्रवननि, ज्योति-ज्योति करि ध्यावत।
सुंदर स्याम दयालु कृपानिधि कैसे हौ बिसरावत ?
सुनि रसाल मुरली-सुर की धुनि सोइ कौतुक रस भूलै।
अपनी भुजा ग्रीव पर मैले गोपिन के सुख फूलै।।
लोककानि कुल को भ्र्म प्रभु मिलि-मिलि कै घर बन खेली।
अब तुम सुर खवावन आए जोग जहर की बेली।।
शब्दार्थ :
अलि=भौरा। निको=अच्छा, गुणवान। तजि=छोड़कर। फीको=बेकार। स्त्रवननि=कानों से। ध्यावत=ध्यान करते हैं। बिसरावत=भूलना। रसाल=मधुर, मीठे। ग्रीव=गर्दन। मैले=डालते थे। लोककानि=लोक की मर्यादा। खेली=खेल डाला, कुछ भी समझा। वैली=बेल, लता, बूटी।
सदर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारे हिंदी साहित्य से लिया गया है जिसके रचनाकार सूरदास जी हैं और सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं। यह भ्रमरगीत सार का पद क्रमांक 26 है।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद्य में जो गोपियाँ हैं उद्धव के योग के उपदेश से खिन्न हो गई हैं और खिन्न होकर प्रतिक्रिया दे रही हैं।
व्याख्या :
गोपियाँ खिन्न होकर उध्दव को भौरे का आड़ लेकर भौरे के माध्यम से उद्धव को खरी-खोटी सूना रही हैं। वे उद्धव कहती हैं हे भौरे तुम्हारे निर्गुण में कौन सी खासियत है कौन सी विशेष बढ़िया बात है जो तुम नंद लाल की रस पद्धति को छुड़ाकर हमें नीरस निर्गुण फीका दिखाई दे रहे हो।
ऐ अली कहाँ जोग में निको तुम उस नजरों को न तो देख पाते हो न बात कर पाते हो बस ज्योति-ज्योति कहकर दौड़ पड़ते हो। हमारे श्याम सुंदर तो अत्यंत दयालु हैं दया के सागर हैं हम उन्हें कैसे भुला सकती हैं हमारे कन्हैंया की मधुर मुरली की धुन सुनकर तो देवता और मुनि लोग भी उसे सुनने के लिए कौतुकवश अपना तन-मन भुला बैठे थे।
"अपना भुजा ग्रीव पर" जब कन्हैया अपनी भुजा हमारे कंधों पर रख देते थे तो हमारा मन खिल उठता था और हम लोग लोक लाज और कुल की मर्यादा छोड़कर प्रभु के साथ घर में वन में खेलती रहती थीं और अब तुम हमको योग रूपी विष की लता खिलाने आ गए हो अर्थात यह तुम्हारा योग का उपदेश हमारे लिए विष के समान प्राण घातक है और कृष्ण का प्रेम हमारे लिए मधुर और जीवन दायक होगा।
विशेष :
- पुष्टिमार्ग भक्ति सिद्धांत के अनुसार लोक की मर्यादा एवं कुल बंधन की सीमाओं को तोड़ा गया है।
- गोकुल के माध्यम से सूरदास जी ने ज्ञान योग का खंडन किया है।
- ब्रज भाषा के सुंदर रूप में सूक्ष्म भावों की स्पष्ट अभिव्यक्ति हुई है।
- व्यंग्य भाव की प्रधानता है। जोर जहर की बोली में रूपक अलंकार।
Related Post
Post a Comment