अगर आप हमारे ब्लॉग को पहली बार विजिट कर रहे हैं तो आपको बता दूँ की इससे पहले हमने भ्रमर गीत के पद क्रमांक 61 की व्याख्या को अपने इस ब्लॉग questionfieldhindi.blogspot.com में पब्लिस किया था। आज हम भ्रमर गीत पद क्रमांक 62 की सप्रसंग व्याख्या के बारे में जानेंगे तो चलीये शुरू करते हैं।
भ्रमरगीत सार की व्याख्या
62. राग बिलावल
काहे को रोकत मारग सूधो ?
सुनहु मधुप ! निर्गुन-कंटक तें राजपंथ क्यों रुधो ?
कै तुम सिखै पाठए कुब्जा, कै कही स्मामधन जू धौं ?
बेद पुरान सुमृति सब ढूँढ़ौ जुवतिन जोग कहूँ घौं ?
ताको कहा परेखो कीजै जानत छाछ न दूधौ।
सूर मूर अक्रूर गए लै ब्याज निबेररत ऊधौ।।
शब्दार्थ : सूधो=सीधा, सरल, अकंटक। राजपथ=राजपथ के समान अकंटक, बाधा रहित। रुधो=रोकते हो। कै=यातो। सिखै=सीखकर। पठाए=भेजे गए हो। धौ=सम्भवतः। समति=स्मृति। जुवतिन=नारियाँ, युवतियाँ। परेखो=बुरा मानना। मूर=मूलधन, मूलराशि। निवेरत=उगाहने, वसूल करने।
संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हिंदी साहित्य के भ्रमर गीत सार से लिया गया है जिसके सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं।
प्रसंग : गोपियाँ उद्धव के द्वारा बार-बार यग और निर्गुण ब्रम्ह का उपदेश देकर प्रेम के सरल और सीधे मार्ग को छोड़कर कंटकपूर्ण टेढ़े मेढ़े योग मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने पर खीज का प्रदर्शन करते हुए कहती है या कर रही हैं।
व्याख्या : खिज का प्रदर्शन करे हुए गोपियाँ उद्धव से कहती हैं, हे उद्धव तुम हमारे सीधे-साधे सरल प्रेम मार्ग में बाधा क्यों बन रहे हो योग मार्ग का उपदेश देकर हमें प्रेम मार्ग से विचलित क्यों कर रहे हो।
हे उद्धव राजपथ के समान बाधा रहित कंटक रहित प्रेम मार्ग को तुम काँटों से भरे हुए अनुचित और कष्ट देने वाली योग मार्ग से क्यों अवरुद्ध कर रहे हो तुम्हारा योगमार्ग जो है, वह कठिन, असाध्य है और इसीलिए हम अपने सादे प्रेम मार्ग को छोड़कर उसे अपना नही सकती उद्धव ऐसा लगता है कि कुब्जा ने हमारे प्रति जो उसकी ईर्ष्या है सिर्ष पर होने के कारण तुम्हें सिखा पढ़ाकर हमारे पास भेजा है ताकि हम कृष्ण को भूलकर योग में भटक जाए और वह कृष्ण के प्रेम को अकेली भोकती रहे उनके साथ बिहार करे या फिर कहीं लगता है कि श्याम ने ही कहीं तुम्हें समझा बुझाकर तुम्हें सिखाकर तुम्हें ये योग का सन्देश देकर हमारे पास इसलिए भेजा हो ताकि वह कुब्जा के प्रेम का भोग कर सके हे उद्धव वेद पुराण स्मृतियाँ आदि सम्पूर्ण धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करके देख लो।
उनमें कहि भी स्पष्ट नही है, की कोमल नारियों को योग की शिक्षा देनी चाहिए। अब हम तुम्हारे जैसे मुर्ख व्यक्ति की बात का क्या बुरा माने जिसे दूध और छाछ का अंतर ही पता नही है। हमारे कृष्ण तो दुग्ध के समान सर्व गुण सम्पन्न हैं और तुम्हारे निर्गुण, छाछ के समान सार हीन हैं किन्तु तुम स्वयं उन दोनों में अंतर नहीं समझ पा रहे हो तो तुम्हारी बात का बुरा क्या माना जाए। हे उद्धव मूलधन को तो अक्रूर ही यहां से ले गए थे मूलधन अर्थात श्री कृष्ण और अब तुम यहां व्याज लुगाने आये हो।
यानी अब यहां जो उसकी थोड़ी सी पड़ी स्मृति शेष है वह भी तुम ले जाना चाहते हो ब्याज रूप में और हमें निर्गुण ब्रम्ह का उपदेश दे रहे हो।
विशेष :
- प्रेममार्ग को राजपथ के समान बताया है।
- योगमार्ग को कंटक पूर्ण तथा अगम्य बताया है।
- घनानंद भी अपने कवित्त में ऐसा ही कहते हैं - " अति सूधो स्नेह को मारग है जहाँ नेकु सयानक बाक नहीं। "
- निर्गुण कंटक में रूपक अलंकार है।
- राजपथ में रूप का अतिसंयोक्ति।
- मूर उधो में लोकोक्ति का प्रयोग किया गया है।
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