Bhramar Geet Saar Ki Vyakhya
अगर आप हमारे ब्लॉग को पहली बार विजिट कर रहे हैं तो आपको बता दूँ की इससे पहले हमने भ्रमर गीत के पद क्रमांक 27 की व्याख्या को अपने इस ब्लॉग questionfieldhindi.blogspot.com में पब्लिस किया था। आज हम भ्रमर गीत पद क्रमांक 28 की सप्रसंग व्याख्या के बारे में जानेंगे तो चलीये शुरू करते हैं।
भ्रमरगीत सार की व्याख्या
पद क्रमांक 28 व्याख्या
- सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल
28. राग धनाश्री
हम तो दुहूँ भॉँति फल पायो।
को ब्रजनाथ मिलै तो नीको , नातरु जग जस गायो।।
कहँ बै गोकुल की गोपी सब बरनहीन लघुजाती।
कहँ बै कमला के स्वामी संग मिल बैठीं इक पाँती।।
निगमध्यान मुनिञान अगोचर , ते भए घोषनिवासी।
ता ऊपर अब साँच कहो धौ मुक्ति कौन की दासी ?
जोग-कथा, पा लोगों ऊधो , ना कहु बारंबार।
सूर स्याम तजि और भजै जो ताकी जननी छार।।
हम तो दुहूँ भॉँति फल पायो।
को ब्रजनाथ मिलै तो नीको , नातरु जग जस गायो।।
कहँ बै गोकुल की गोपी सब बरनहीन लघुजाती।
कहँ बै कमला के स्वामी संग मिल बैठीं इक पाँती।।
निगमध्यान मुनिञान अगोचर , ते भए घोषनिवासी।
ता ऊपर अब साँच कहो धौ मुक्ति कौन की दासी ?
जोग-कथा, पा लोगों ऊधो , ना कहु बारंबार।
सूर स्याम तजि और भजै जो ताकी जननी छार।।
शब्दार्थ : हम तो=हमने तो। दुहुँ भाँति=दोनों तरह से। नीको=अच्छा आम। वरण हीन=नीच कुल की। लघू जाती=नीच जाती की। कमला के स्वामी=लक्ष्मी के पति। पाँति=पंक्ति। निगम=वेद। अगोचर=अप्राप्त। घोष निवासी=अहीरों की बस्ती में रहने वाले। छार=राख।
संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हिंदी साहित्य के भ्रमर गीत सार से लिया गया है जिसके सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं।
संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हिंदी साहित्य के भ्रमर गीत सार से लिया गया है जिसके सम्पादक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी हैं।
प्रसंग : गोपियाँ उध्दव से कहती हैं की हे उध्ध्दव कृष्ण प्रेम का फल तो हमें दोनों ही प्रकार से प्राप्त हो जाएगा।
व्याख्या : यदि हमारे इस विरह के अंत में ब्रजनाथ श्री कृष्ण मिल जाए तो बहुत अच्छी बात है और नही भी मील पाते है तो मरने के बाद सारा संसार हमारी जस गान करेगा। गोपियो ने श्री कृष्ण के प्रेम में एकनिष्ठ भाव को अपनाया अथवा इस पंक्ति का यह अर्थ भी लिया जा सकता है, की ब्रजनाथ श्री कृष्ण मिल भी गए तो ठीक नहीं। तो जग में ये अथवा संसार में उनका यशगान ही सही उनके यश को गाकर ही हम संतुष्ट हो लेंगे। हमारे और श्री कृष्ण की समानता ही नही है।
कहाँ तो हम गोकुल की गोपियाँ जो वर्णहीन लघुजाती की हैं अर्थात नीच कुल और नीच जाती में जन्म लेने वाली है और कहाँ वे लक्ष्मीपति ब्रम्ह स्वरूप श्री कृष्ण है। ये तो हमारा परम् सौभाग्य है की हमने उनसे प्रेम किया हमें यह अवसर मिला और उन्होंने भी हमें प्यार के योग्य समझा और हम उनके साथ एक पंक्ति में बैठ सकी अर्थात उन्होंने हमें समानता का दर्जा दिया।
जिन भगवान का ध्यान वेद भी करते हैं जिन्हें ग्यानी मुनि भी प्रयत्न करने पर प्राप्त नहीं कर पाते। जो मुनियों के लिए भी अगोचर हैं वे भगवान हम अहीरों की बस्ती में आकर रहे।
अब आप हमें ये बताओ की मुक्ति किसकी दासी है यदि मुक्ति ब्रम्ह की दासी है तो वह ब्रम्ह कृष्ण हैं। हे उद्धव हम आपके पाँव पड़ते हैं। अपने इस योग की कथा को बार-बार हमें न सुनाओ।
सूरदास जी लिखते हैं की गोपियाँ कहती हैं ,की उद्धव जो कृष्ण को त्यागकर किसी और की उपासना करता है। उसकी माता भी उसकी जन्म देने वाली माता भी धिक्कार के योग्य है।
कहाँ तो हम गोकुल की गोपियाँ जो वर्णहीन लघुजाती की हैं अर्थात नीच कुल और नीच जाती में जन्म लेने वाली है और कहाँ वे लक्ष्मीपति ब्रम्ह स्वरूप श्री कृष्ण है। ये तो हमारा परम् सौभाग्य है की हमने उनसे प्रेम किया हमें यह अवसर मिला और उन्होंने भी हमें प्यार के योग्य समझा और हम उनके साथ एक पंक्ति में बैठ सकी अर्थात उन्होंने हमें समानता का दर्जा दिया।
जिन भगवान का ध्यान वेद भी करते हैं जिन्हें ग्यानी मुनि भी प्रयत्न करने पर प्राप्त नहीं कर पाते। जो मुनियों के लिए भी अगोचर हैं वे भगवान हम अहीरों की बस्ती में आकर रहे।
अब आप हमें ये बताओ की मुक्ति किसकी दासी है यदि मुक्ति ब्रम्ह की दासी है तो वह ब्रम्ह कृष्ण हैं। हे उद्धव हम आपके पाँव पड़ते हैं। अपने इस योग की कथा को बार-बार हमें न सुनाओ।
सूरदास जी लिखते हैं की गोपियाँ कहती हैं ,की उद्धव जो कृष्ण को त्यागकर किसी और की उपासना करता है। उसकी माता भी उसकी जन्म देने वाली माता भी धिक्कार के योग्य है।
विशेष :
- प्रस्तुत पद में ज्ञान पर भक्ति की विजय स्पष्ट दिखाई देती है सूक्ष्म भावों की सहज और प्रभावी अभिव्यक्ति की गई है।
- कृष्ण के प्रति गोपियों के अनन्य प्रेम को दर्शाया गया है।
- बैठी एक पाँती में भाषा के मुहावरे का प्रयोग किया गया है।
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